Sukhmani Sahib Ashtpadi 21 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

सुखमनी साहिब असटपदी 21

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

सलोकु ॥

सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधी आपि ॥
निरंकार प्रभु स्वयं ही सर्गुण एवं निर्गुण है। वह स्वयं ही शून्य समाधि में रहता है।

आपन कीआ नानका आपे ही फिरि जापि ॥१॥
हे नानक ! निरंकार प्रभु ने स्वयं ही सृष्टि-रचना की है
और फिर स्वयं ही (जीवों द्वारा) जाप करता है॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

असटपदी ॥
अष्टपदी।

जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता ॥
जब इस सृष्टि का प्रसार कुछ भी दिखाई नहीं देता था,

पाप पुंन तब कह ते होता ॥
तब पाप अथवा पुण्य किस (प्राणी) से हो सकता था ?

जब धारी आपन सुंन समाधि ॥
जब परमात्मा स्वयं शून्य समाधि में था,

तब बैर बिरोध किसु संगि कमाति ॥
तब वैर-विरोध कोई किससे करता था।

जब इस का बरनु चिहनु न जापत ॥
जब (दुनिया का) कोई वर्ण अथवा चिन्ह दिखाई नहीं देता था,

तब हरख सोग कहु किसहि बिआपत ॥
बताओ तब हर्ष एवं शोक किसे स्पर्श कर सकते थे।

जब आपन आप आपि पारब्रहम ॥
जब परब्रह्म स्वयं ही सब कुछ था,

तब मोह कहा किसु होवत भरम ॥
तब मोह कहाँ हो सकता था और दुविधा किसे हो सकती थी ?

आपन खेलु आपि वरतीजा ॥
हे नानक ! (सृष्टि रूपी) अपनी लीला अकाल पुरुष ने स्वयं ही रची है,

नानक करनैहारु न दूजा ॥१॥
इसके अलावा दूसरा कोई रचयिता नहीं ॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

जब होवत प्रभ केवल धनी ॥
जब जगत् का स्वामी परमात्मा केवल स्वयं ही था,

तब बंध मुकति कहु किस कउ गनी ॥
तब बताओ किसे बन्धनयुक्त एवं किसे बन्धनमुक्त गिना जाता था ?

जब एकहि हरि अगम अपार ॥
जब केवल अगम्य एवं अपार हरि ही था,

तब नरक सुरग कहु कउन अउतार ॥
तब बताओ, नरकों तथा स्वर्गों में आने वाले कौन से प्राणी थे।

जब निरगुन प्रभ सहज सुभाइ ॥
जब निर्गुण परमात्मा अपने सहज स्वभाव सहित था,

तब सिव सकति कहहु कितु ठाइ ॥
तब बताओ शिव-शक्ति किस स्थान पर थे?

जब आपहि आपि अपनी जोति धरै ॥
जब परमात्मा स्वयं ही अपनी ज्योति प्रज्वलित किए बैठा था,

तब कवन निडरु कवन कत डरै ॥
तब कौन निडर था और कौन किससे डरता था ?

आपन चलित आपि करनैहार ॥
हे नानक ! परमात्मा अगम्य एवं अपार है।

नानक ठाकुर अगम अपार ॥२॥
अपने कौतुक स्वयं ही करने वाला है ॥२॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

अबिनासी सुख आपन आसन ॥
जब अमर परमात्मा अपने सुखदायक आसन पर विराजमान था,

तह जनम मरन कहु कहा बिनासन ॥
बताओ तब जन्म-मरण और विनाश (काल) कहाँ थे?

जब पूरन करता प्रभु सोइ ॥
जब पूर्ण अकाल पुरुष कर्तार ही था,

तब जम की त्रास कहहु किसु होइ ॥
बताओ तब मृत्यु का भय किसे हो सकता था ?

जब अबिगत अगोचर प्रभ एका ॥
जब केवल अलक्ष्य एवं अगोचर परमात्मा ही था,

तब चित्र गुपत किसु पूछत लेखा ॥
तब चित्रगुप्त किस से लेखा पूछते थे ?

जब नाथ निरंजन अगोचर अगाधे ॥
जब केवल निरंजन, अगोचर एवं अथाह नाथ (परमात्मा) ही था,

तब कउन छुटे कउन बंधन बाधे ॥
तब कौन माया के बन्धन से मुक्त थे और कौन बन्धनों में फंसे हुए थे ?

आपन आप आप ही अचरजा ॥
परमात्मा सब कुछ अपने आप से ही है, वह स्वयं ही अद्भुत है।

नानक आपन रूप आप ही उपरजा ॥३॥
हे नानक ! अपना रूप उसने स्वयं ही उत्पन्न किया है ॥३॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

जह निरमल पुरखु पुरख पति होता ॥
जहां निर्मल पुरुष ही पुरुषों का पति होता था

तह बिनु मैलु कहहु किआ धोता ॥
और वहाँ कोई मैल नहीं थी, बताओ ! तब वहाँ स्वच्छ करने को क्या था?

जह निरंजन निरंकार निरबान ॥
जहाँ केवल निरंजन, निरंकार एवं निर्लिप्त परमात्मा ही था,

तह कउन कउ मान कउन अभिमान ॥
वहाँ किसका मान एवं किसका अभिमान होता था ?

जह सरूप केवल जगदीस ॥
जहाँ केवल सृष्टि के स्वामी जगदीश का ही रूप था,

तह छल छिद्र लगत कहु कीस ॥
बताओ, वहाँ छल-कपट एवं पाप किसको दुःखी करते थे ?

जह जोति सरूपी जोति संगि समावै ॥
जहाँ ज्योति स्वरूप अपनी ज्योति से ही समाया हुआ था,

तह किसहि भूख कवनु त्रिपतावै ॥
तब वहाँ किसे भूख लगती थी और किसे तृप्ति आती थी ?

करन करावन करनैहारु ॥
सृष्टि का रचयिता करतार स्वयं ही सबकुछ करने वाला और प्राणियों से कराने वाला है।

नानक करते का नाहि सुमारु ॥४॥
हे नानक ! दुनिया का निर्माण करने वाले परमात्मा का कोई अन्त नहीं है ॥४॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई ॥
जब परमात्मा ने अपनी शोभा अपने साथ ही बनाई थी,

तब कवन माइ बाप मित्र सुत भाई ॥
तब माता-पिता, मित्र, पुत्र एवं भाई कौन थे ?

जह सरब कला आपहि परबीन ॥
जब वह स्वयं ही सर्वकला में पूरी तरह प्रवीण था,

तह बेद कतेब कहा कोऊ चीन ॥
तब वेद तथा कतेब को कहाँ कोई पहचानता था।

जब आपन आपु आपि उरि धारै ॥
जब अकाल पुरुष अपने आपको अपने हृदय में ही धारण किए रखता था,

तउ सगन अपसगन कहा बीचारै ॥
तब शगुन (शुभ) एवं अपशगुन (अशुभ लग्नों) का कौन सोचता था ?

जह आपन ऊच आपन आपि नेरा ॥
जहाँ परमात्मा स्वयं ही ऊँचा और स्वयं ही निकट था,

तह कउन ठाकुरु कउनु कहीऐ चेरा ॥
वहाँ कौन स्वामी और कौन सेवक कहा जा सकता था ?

बिसमन बिसम रहे बिसमाद ॥
मैं प्रभु के अदभुत कौतुक देखकर चकित हो रहा हूँ।

नानक अपनी गति जानहु आपि ॥५॥
नानक का कथन है कि हे परमेश्वर ! अपनी गति तू स्वयं ही जानता है ॥५॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

जह अछल अछेद अभेद समाइआ ॥
जहाँ छलरहित, अल्लेद एवं अभेद परमेश्वर अपने आप में लीन था,

ऊहा किसहि बिआपत माइआ ॥
वहाँ माया किस पर प्रभाव करती थी ?

आपस कउ आपहि आदेसु ॥
जब ईश्वर स्वयं अपने आपको प्रणाम करता था,

तिहु गुण का नाही परवेसु ॥
तब (माया के) त्रिगुणों का (जगत् में) प्रवेश नहीं हुआ था।

जह एकहि एक एक भगवंता ॥
जहाँ केवल एक आप ही भगवान था,

तह कउनु अचिंतु किसु लागै चिंता ॥
वहाँ कौन बेफिक्र था और किसे चिन्ता लगती थी ?

जह आपन आपु आपि पतीआरा ॥
जहाँ परमात्मा अपने आप से स्वयं संतुष्ट था,

तह कउनु कथै कउनु सुननैहारा ॥
वहां कौन कहने वाला और कौन सुनने वाला था?

बहु बेअंत ऊच ते ऊचा ॥
हे नानक ! परमात्मा बड़ा अनन्त एवं सर्वोपरि है,

नानक आपस कउ आपहि पहूचा ॥६॥
केवल वही अपने आप तक पहुँचता है॥ ६॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

जह आपि रचिओ परपंचु अकारु ॥
जब परमात्मा ने स्वयं सृष्टि का परपंच रच दिया

तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥
और माया के त्रिगुणों का प्रसार जगत् में कर दिया,

पापु पुंनु तह भई कहावत ॥
तो यह बात प्रचलित हो गई कि यह पाप है अथवा यह पुण्य है।

कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥
कोई नरक में जाने लगा और कोई स्वर्ग की अभिलाषा करने लगा।

आल जाल माइआ जंजाल ॥
ईश्वर ने सांसारिक विवाद, धन-दौलत के जंजाल,

हउमै मोह भरम भै भार ॥
अहंकार, मोह, दुविधा एवं भय के भार बना दिए।

दूख सूख मान अपमान ॥
दुःख-सुख, मान-अपमान

अनिक प्रकार कीओ बख्यान ॥
अनेक प्रकार से वर्णन होने प्रारम्भ हो गए।

आपन खेलु आपि करि देखै ॥
अपनी लीला प्रभु स्वयं ही रचता और देखता हैं।

खेलु संकोचै तउ नानक एकै ॥७॥
हे नानक ! जब परमात्मा अपनी लीला को समेट लेता है तो केवल वही रह जाता है ॥७॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 21

जह अबिगतु भगतु तह आपि ॥
जहाँ पर अनन्त परमात्मा है, वहीं उसका भक्त है, जहाँ पर भक्त है, वहीं परमात्मा स्वयं है।

जह पसरै पासारु संत परतापि ॥
जहाँ कहीं वह रचना का प्रसार करता है, वह उसके संत के प्रताप के लिए है।

दुहू पाख का आपहि धनी ॥
दोनों पक्षों का वह स्वयं ही मालिक है।

उन की सोभा उनहू बनी ॥
उसकी शोभा केवल उसी को ही शोभा देती है।

आपहि कउतक करै अनद चोज ॥
भगवान स्वयं ही लीला एवं खेल करता है।

आपहि रस भोगन निरजोग ॥
वह स्वयं ही आनंद भोगता है और फिर भी निर्लिप्त रहता है।

जिसु भावै तिसु आपन नाइ लावै ॥
जिस किसी को वह चाहता है, उसको अपने नाम के साथ लगा लेता है।

जिसु भावै तिसु खेल खिलावै ॥
जिस किसी को वह चाहता है, उसको संसार का खेल खिलाता है।

बेसुमार अथाह अगनत अतोलै ॥
नानक का कथन है कि हे अनन्त ! हे अथाह ! हे गणना-रहित, अतुलनीय परमात्मा !

जिउ बुलावहु तिउ नानक दास बोलै ॥८॥२१॥
जैसे तुम बुलाते हो, वैसे ही यह दास बोलता है ॥८॥२१॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 22