Sukhmani Sahib Ashtpadi 15 Hindi Lyrics & Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15 Hindi Lyrics, and Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
सुखमनी साहिब असटपदी 15
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
सलोकु ॥
सरब कला भरपूर प्रभ बिरथा जाननहार ॥
प्रभु सर्वकला सम्पूर्ण है और हमारे दु:खों को जानने वाला है।
जा कै सिमरनि उधरीऐ नानक तिसु बलिहार ॥१॥
हे नानक ! जिसका सिमरन करने से मनुष्य का उद्धार हो जाता है,
मैं उस पर कुर्बान जाता हूँ ॥१॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
असटपदी ॥
अष्टपदी॥
टूटी गाढनहार गोपाल ॥
जगतपालक गोपाल टूटों को जोड़ने वाला है।
सरब जीआ आपे प्रतिपाल ॥
वह स्वयं ही समस्त प्राणियों का पालन-पोषण करता है।
सगल की चिंता जिसु मन माहि ॥
जिसके मन में सब की चिन्ता है,
तिस ते बिरथा कोई नाहि ॥
उससे कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता।
रे मन मेरे सदा हरि जापि ॥
हे मेरे मन ! सदा ही परमात्मा का जाप कर।
अबिनासी प्रभु आपे आपि ॥
अनश्वर प्रभु सब कुछ स्वयं ही है।
आपन कीआ कछू न होइ ॥
प्राणी के अपने करने से कुछ नहीं हो सकता,
जे सउ प्रानी लोचै कोइ ॥
चाहे वह सैकड़ों बार इसकी इच्छा करे।
तिसु बिनु नाही तेरै किछु काम ॥
उसके अतिरिक्त कुछ भी तेरे काम का नहीं।
गति नानक जपि एक हरि नाम ॥१॥
हे नानक ! एक ईश्वर के नाम का जाप करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥१॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
रूपवंतु होइ नाही मोहै ॥
यदि प्राणी अति सुन्दर है
तो अपने आप वह दूसरों को मोहित नहीं करता।
प्रभ की जोति सगल घट सोहै ॥
प्रभु की ज्योति ही समस्त शरीरों में सुन्दर लगती है।
धनवंता होइ किआ को गरबै ॥
धनवान होकर कोई पुरुष क्या अभिमान करे,
जा सभु किछु तिस का दीआ दरबै ॥
जब समस्त धन उसका दिया हुआ है।
अति सूरा जे कोऊ कहावै ॥
यदि कोई पुरुष अपने आपको महान शूरवीर कहलवाता हो,
प्रभ की कला बिना कह धावै ॥
प्रभु की कला (शक्ति) बिना वह क्या प्रयास कर सकता है?
जे को होइ बहै दातारु ॥
यदि कोई पुरुष दानी बन बैठे ।
तिसु देनहारु जानै गावारु ॥
तो दाता प्रभु उसको मूर्ख समझता है।
जिसु गुर प्रसादि तूटै हउ रोगु ॥
गुरु की कृपा से जिसके अहंकार का रोग दूर होता है,
नानक सो जनु सदा अरोगु ॥२॥
हे नानक ! वह मनुष्य सदैव स्वस्थ है ॥२॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
जिउ मंदर कउ थामै थमनु ॥
जैसे मन्दिर को एक खम्भा सहारा देता है,
तिउ गुर का सबदु मनहि असथमनु ॥
वैसे ही गुरु का शब्द मन को सहारा देता है।
जिउ पाखाणु नाव चड़ि तरै ॥
जैसे नाव में रखा पत्थर पार हो जाता है,
प्राणी गुर चरण लगतु निसतरै ॥
वैसे ही प्राणी गुरु के चरणों से लगकर भवसागर से पार हो जाता है।
जिउ अंधकार दीपक परगासु ॥
जैसे दीपक अन्धेरे में प्रकाश कर देता है,
गुर दरसनु देखि मनि होइ बिगासु ॥
वैसे ही गुरु के दर्शन करके मन प्रफुल्लित हो जाता है।
जिउ महा उदिआन महि मारगु पावै ॥
जैसे मनुष्य को महा जंगल में पथ मिल जाता है,
तिउ साधू संगि मिलि जोति प्रगटावै ॥
वैसे ही सत्संगति में रहने से प्रभु की ज्योति
मनुष्य के भीतर प्रकट हो जाती है।
तिन संतन की बाछउ धूरि ॥
मैं उन संतों के चरणों की धूलि मांगता हूँ।
नानक की हरि लोचा पूरि ॥३॥
हे ईश्वर ! नानक की आकांक्षा पूर्णं करो॥ ३॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
मन मूरख काहे बिललाईऐ ॥
हे मूर्ख मन ! क्यों विलाप करते हो !
पुरब लिखे का लिखिआ पाईऐ ॥
तुझे वह कुछ मिलेगा, जो तेरे पूर्व जन्म के कर्मों द्वारा लिखा हुआ है।
दूख सूख प्रभ देवनहारु ॥
प्रभु दुःख एवं सुख देने वाला है।
अवर तिआगि तू तिसहि चितारु ॥
अन्य सब कुछ छोड़कर तू उसकी ही आराधना कर।
जो कछु करै सोई सुखु मानु ॥
परमात्मा जो कुछ करता है, उसको सुख समझ।
भूला काहे फिरहि अजान ॥
हे मूर्ख ! तुम क्यों भटकते फेिरते हो।
कउन बसतु आई तेरै संग ॥
कौन-सी वस्तु तेरे साथ आई है।
लपटि रहिओ रसि लोभी पतंग ॥
हे लालची परवाने ! तुम सांसारिक ऐश्वर्य-भोग में मस्त हो रहे हो ?
राम नाम जपि हिरदे माहि ॥
तू अपने मन में राम के नाम का जाप कर।
नानक पति सेती घरि जाहि ॥४॥
हे नानक ! इस तरह तुम सम्मानपूर्वक
अपने धाम (परलोक) को जाओगे ॥ ४॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
जिसु वखर कउ लैनि तू आइआ ॥
“(हे जीव !) जिस सौदे को लेने लिए तू दुनिया में आया है,”
राम नामु संतन घरि पाइआ ॥
वह राम नाम रूपी सौदा संतों के घर से मिलता है।
तजि अभिमानु लेहु मन मोलि ॥
अपने अभिमान को त्याग दे,
राम नामु हिरदे महि तोलि ॥
राम का नाम अपने हृदय में तोल और अपने मन से इसे खरीद।
लादि खेप संतह संगि चालु ॥
अपना सौदा लाद ले और संतों के संग चल।
अवर तिआगि बिखिआ जंजाल ॥
माया के दूसरे जंजाल त्याग दे।
धंनि धंनि कहै सभु कोइ ॥
हरेक तुझे धन्य ! धन्य ! कहेगा।
मुख ऊजल हरि दरगह सोइ ॥
उस प्रभु के दरबार में तेरा मुख उज्ज्वल होगा।
इहु वापारु विरला वापारै ॥
यह व्यापार कोई विरला व्यापारी ही करता है।
नानक ता कै सद बलिहारै ॥५॥
हे नानक ! मैं ऐसे व्यापारी पर सदा बलिहारी जाता हूँ॥ ५ ॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
चरन साध के धोइ धोइ पीउ ॥
(हे जीव !) साधुओं के चरण धो-धोकर पी।
अरपि साध कउ अपना जीउ ॥
साधुओं पर अपनी आत्मा भी अर्पण कर दे,”
साध की धूरि करहु इसनानु ॥
साधुओं के चरणों की धूलि से स्नान कर।
साध ऊपरि जाईऐ कुरबानु ॥
साधु पर कुर्बान हो जाना चाहिए।
साध सेवा वडभागी पाईऐ ॥
साधु की सेवा सौभाग्य से ही मिलती है।
साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥
साधु की संगति में हरि का भजन गान करना चाहिए।
अनिक बिघन ते साधू राखै ॥
साधु अनेक विघ्नों से मनुष्य की रक्षा करता है।
हरि गुन गाइ अम्रित रसु चाखै ॥
जो प्रभु की गुणस्तुति करता है, वह अमृत रस को चखता है।
ओट गही संतह दरि आइआ ॥
जिसने संतों का सहारा पकड़ा है और उनके द्वार पर आ गिरा है,
सरब सूख नानक तिह पाइआ ॥६॥
हे नानक ! वह सर्व सुख प्राप्त कर लेता है॥ ६॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 15
मिरतक कउ जीवालनहार ॥
परमात्मा मृतक प्राणी को भी जीवित करने वाला है।
भूखे कउ देवत अधार ॥
वह भूखे को भी भोजन प्रदान करता है।
सरब निधान जा की द्रिसटी माहि ॥
तमाम खजाने उसकी दृष्टि में हैं।
पुरब लिखे का लहणा पाहि ॥
(परन्तु प्राणी) अपने पूर्व जन्म के किए कर्मों का फल भोगते हैं।
सभु किछु तिस का ओहु करनै जोगु ॥
सबकुछ उस परमात्मा का ही है और वही सब कुछ करने में समर्थावान है।
तिसु बिनु दूसर होआ न होगु ॥
उसके अलावा कोई दूसरा न ही था और न ही होगा।
जपि जन सदा सदा दिनु रैणी ॥
हे जीव ! दिन-रात सदैव उसकी आराधना कर।
सभ ते ऊच निरमल इह करणी ॥
यह जीवन-आचरण सबसे ऊँचा एवं पवित्र है।
करि किरपा जिस कउ नामु दीआ ॥
जिस पुरुष पर परमात्मा ने कृपा धारण करके अपना नाम प्रदान किया है,
नानक सो जनु निरमलु थीआ ॥७॥
हे नानक ! वह पवित्र हो जाता है॥ ७ ॥
जा कै मनि गुर की परतीति ॥
जिसके मन में गुरु जी पर आस्था है,
तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥
वह मनुष्य हरि-प्रभु को स्मरण करने लग जाता है।
भगतु भगतु सुनीऐ तिहु लोइ ॥
वह तीनों लोकों में प्रसिद्ध भक्त हो जाता है
जा कै हिरदै एको होइ ॥
जिसके हृदय में एक ईश्वर विद्यमान होता है।
सचु करणी सचु ता की रहत ॥
उसका कर्म सत्य है और जीवन-मर्यादा भी सत्य है।
सचु हिरदै सति मुखि कहत ॥
उसके मन में सत्य है और वह अपने मुख से सत्य ही बोलता है।
साची द्रिसटि साचा आकारु ॥
उसकी दृष्टि सत्य है और उसका स्वरूप भी सत्य है।
सचु वरतै साचा पासारु ॥
वह सत्य बांटता है और सत्य ही फैलाता है।
पारब्रहमु जिनि सचु करि जाता ॥
हे नानक ! जो पुरुष परब्रह्म को सत्य समझता है,
नानक सो जनु सचि समाता ॥८॥१५॥
वह पुरुष सत्य में ही समा जाता है ॥८॥१५॥