Sukhmani Sahib Ashtpadi 14 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14 Hindi Lyrics, and Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

सुखमनी साहिब असटपदी 14

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

सलोकु ॥

तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥
हे भद्रपुरुषो ! अपनी चतुराई त्याग कर हरि-परमेश्वर का सिमरन करो।

एक आस हरि मनि रखहु नानक दूखु भरमु भउ जाइ ॥१॥
अपने मन में भगवान की आशा रखो।
हे नानक ! इस तरह दुख, भ्रम एवं भय दूर हो जाएँगे ॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

असटपदी ॥
अष्टपदी ॥

मानुख की टेक ब्रिथी सभ जानु ॥
(हे प्राणी !) किसी मनुष्य पर भरोसा रखना सब व्यर्थ है।

देवन कउ एकै भगवानु ॥
एक भगवान ही सब को देने वाला है।

जिस कै दीऐ रहै अघाइ ॥
जिसके देने से ही तृप्ति होती है

बहुरि न त्रिसना लागै आइ ॥
और फिर तृष्णा आकर नहीं लगती।

मारै राखै एको आपि ॥
एक ईश्वर स्वयं ही मारता है और रक्षा करता है।

मानुख कै किछु नाही हाथि ॥
मनुष्य के वश में कुछ भी नहीं है।

तिस का हुकमु बूझि सुखु होइ ॥
उसका हुक्म समझने से सुख उपलब्ध होता है।

तिस का नामु रखु कंठि परोइ ॥
सके नाम को पिरोकर अपने कण्ठ में डालकर रखो।

सिमरि सिमरि सिमरि प्रभु सोइ ॥
हे नानक ! उस प्रभु को हमेशा स्मरण करते रहो,

नानक बिघनु न लागै कोइ ॥१॥
कोई विघ्न नहीं आएगा ॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

उसतति मन महि करि निरंकार ॥
अपने मन में परमात्मा की महिमा-स्तुति करो।

करि मन मेरे सति बिउहार ॥
हे मेरे मन ! सत्य का कार्य-व्यवहार कर।

निरमल रसना अम्रितु पीउ ॥
नाम का अमृत पान करने से तेरी जिव्हा पवित्र हो जाएगी

सदा सुहेला करि लेहि जीउ ॥
और तू अपनी आत्मा को हमेशा के लिए सुखदायक बना लेगा।

नैनहु पेखु ठाकुर का रंगु ॥
अपने नेत्रों से ईश्वर का कौतुक देख।

साधसंगि बिनसै सभ संगु ॥
सत्संगति में मिलने से दूसरे तमाम मेल-मिलाप लुप्त हो जाते हैं।

चरन चलउ मारगि गोबिंद ॥
अपने चरणों से गोबिन्द के मार्ग पर चलो।

मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद ॥
एक क्षण भर के लिए भी हरि का
जाप करने से पाप मिट जाते हैं।

कर हरि करम स्रवनि हरि कथा ॥
प्रभु की सेवा करो और कानों से हरि कथा सुनो।

हरि दरगह नानक ऊजल मथा ॥२॥
हे नानक ! (इस प्रकार) प्रभु के दरबार
में तेरा मस्तक उज्जवल हो जाएगा ॥ २॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

बडभागी ते जन जग माहि ॥
दुनिया में वही व्यक्ति भाग्यशाली हैं,

सदा सदा हरि के गुन गाहि ॥
जो हमेशा भगवान की महिमा गाते रहते हैं।

राम नाम जो करहि बीचार ॥
जो व्यक्ति राम के नाम का चिन्तन करते रहते हैं,

से धनवंत गनी संसार ॥
वही व्यक्ति जगत् में धनवान गिने जाते हैं।

मनि तनि मुखि बोलहि हरि मुखी ॥
जो व्यक्ति अपने मन, तन एवं मुख से
परमेश्वर के नाम का उच्चारण करते हैं,

सदा सदा जानहु ते सुखी ॥
समझ लीजिए कि वे हमेशा सुखी हैं।

एको एकु एकु पछानै ॥
जो पुरुष केवल एक प्रभु को ही पहचानता है,

इत उत की ओहु सोझी जानै ॥
उसे इहलोक एवं परलोक का ज्ञान हो जाता है।

नाम संगि जिस का मनु मानिआ ॥
हे नानक ! जिसका मन ईश्वर के नाम में मिल जाता है,

नानक तिनहि निरंजनु जानिआ ॥३॥
वह प्रभु को पहचान लेता है॥ ३॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

गुर प्रसादि आपन आपु सुझै ॥
गुरु की कृपा से जो व्यक्ति अपने आपको समझ लेता है,

तिस की जानहु त्रिसना बुझै ॥
जान लीजिए कि उसकी तृष्णा मिट गई है।

साधसंगि हरि हरि जसु कहत ॥
जो व्यक्ति संतों की संगति में हरि-परमेश्वर का यश करता रहता है,

सरब रोग ते ओहु हरि जनु रहत ॥
वह प्रभु भक्त तमाम रोगों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

अनदिनु कीरतनु केवल बख्यानु ॥
जो व्यक्ति रात-दिन केवल ईश्वर का भजन ही बखान करता है,

ग्रिहसत महि सोई निरबानु ॥
वह अपने गृहस्थ में ही निर्लिप्त रहता है।

एक ऊपरि जिसु जन की आसा ॥
जिस मनुष्य ने एक ईश्वर पर आशा रखी है,

तिस की कटीऐ जम की फासा ॥
उसके लिए मृत्यु का फँदा कट जाता है।

पारब्रहम की जिसु मनि भूख ॥
जिसके मन में पारब्रह्म की भूख है,

नानक तिसहि न लागहि दूख ॥४॥
हे नानक ! उसको कोई दुख नहीं लगता ॥ ४ ॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

जिस कउ हरि प्रभु मनि चिति आवै ॥
जिसको हरि-प्रभु मन में याद आता है,

सो संतु सुहेला नही डुलावै ॥
वह संत सुखी है और उसका मन कभी नहीं डगमगाता।

जिसु प्रभु अपुना किरपा करै ॥
जिस पर ईश्वर अपनी कृपा धारण करता है,

सो सेवकु कहु किस ते डरै ॥
कहो वह सेवक किससे डर सकता है?

जैसा सा तैसा द्रिसटाइआ ॥
जैसा ईश्वर है, वैसा ही उसको दिखाई देता है।

अपुने कारज महि आपि समाइआ ॥
अपनी रचना में प्रभु स्वयं ही समाया हुआ है।

सोधत सोधत सोधत सीझिआ ॥
अनेक बार विचार करके विचार लिया है।

गुर प्रसादि ततु सभु बूझिआ ॥
गुरु की कृपा से समस्त वास्तविकता को समझ लिया है।

जब देखउ तब सभु किछु मूलु ॥
जब मैं देखता हूँ तो सब कुछ परमात्मा ही है।

नानक सो सूखमु सोई असथूलु ॥५॥
हे नानक ! वह स्वयं ही सूक्ष्म और स्वयं ही अस्थूल है॥ ५॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

नह किछु जनमै नह किछु मरै ॥
न कुछ जन्मता है, न कुछ मरता है।

आपन चलितु आप ही करै ॥
भगवान अपनी लीला स्वयं ही करता है।

आवनु जावनु द्रिसटि अनद्रिसटि ॥
जन्म-मरण, गोचर(दृश्य) एवं अगोचर(अद्रश्य)-”

आगिआकारी धारी सभ स्रिसटि ॥
यह समूचा जगत् उसने अपने आज्ञाकारी बनाए हुए हैं।

आपे आपि सगल महि आपि ॥
सब कुछ वह अपने आप से ही है।
वह स्वयं ही सब (जीव-जन्तुओं) में विद्यमान है।

अनिक जुगति रचि थापि उथापि ॥
अनेक युक्तियों द्वारा वह सृष्टि की रचना करता एवं उसका नाश भी करता है।

अबिनासी नाही किछु खंड ॥
लेकिन अनश्वर परमात्मा का कुछ भी नाश नहीं होता।

धारण धारि रहिओ ब्रहमंड ॥
वह ब्रह्माण्ड को सहारा दे रहा है।

अलख अभेव पुरख परताप ॥
प्रभु का तेज-प्रताप अलक्ष्य एवं भेद रहित है।

आपि जपाए त नानक जाप ॥६॥
हे नानक ! यदि वह अपना जाप मनुष्य से स्वयं करवाए
तो ही वह जाप करता है ॥६॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

जिन प्रभु जाता सु सोभावंत ॥
जो प्रभु को जानते हैं, वे शोभायमान हैं।

सगल संसारु उधरै तिन मंत ॥
समूचा जगत् उनके मंत्र (उपदेश) द्वारा बच जाता है।

प्रभ के सेवक सगल उधारन ॥
प्रभु के सेवक सबका कल्याण कर देते हैं।

प्रभ के सेवक दूख बिसारन ॥
प्रभु के सेवकों की संगति द्वारा दुःख भूल जाता है।

आपे मेलि लए किरपाल ॥
कृपालु प्रभु उनको अपने साथ मिला लेता है।

गुर का सबदु जपि भए निहाल ॥
गुरु के शब्द का जाप करने से वह कृतार्थ हो जाते हैं।

उन की सेवा सोई लागै ॥
केवल वही सौभाग्यशाली उनकी सेवा में लगता है,

जिस नो क्रिपा करहि बडभागै ॥
जिस पर प्रभु कृपा धारण करता है।

नामु जपत पावहि बिस्रामु ॥
जो प्रभु के नाम का जाप करते हैं, वे सुख पाते हैं।

नानक तिन पुरख कउ ऊतम करि मानु ॥७॥
हे नानक ! उन पुरुषों को महान समझो ॥ ७॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14

जो किछु करै सु प्रभ कै रंगि ॥
वह जो कुछ करता है, प्रभु की रजा में करता है।

सदा सदा बसै हरि संगि ॥
वह हमेशा के लिए प्रभु के साथ बसता है।

सहज सुभाइ होवै सो होइ ॥
जो कुछ होता है, वह सहज स्वभाव ही होता है।

करणैहारु पछाणै सोइ ॥
वह उस सृजनहार प्रभु को ही पहचानता है।

प्रभ का कीआ जन मीठ लगाना ॥
प्रभु का किया उसके सेवकों को मीठा लगता है।

जैसा सा तैसा द्रिसटाना ॥
जैसा प्रभु है, वैसा ही उसको दिखाई देता है।

जिस ते उपजे तिसु माहि समाए ॥
वह उसमें लीन हो जाता है, जिससे वह उत्पन्न हुआ था।

ओइ सुख निधान उनहू बनि आए ॥
वह सुखों का भण्डार है। यह प्रतिष्ठा केवल उसको ही शोभा देती है।

आपस कउ आपि दीनो मानु ॥
अपने सेवक को प्रभु ने स्वयं ही शोभा प्रदान की है।

नानक प्रभ जनु एको जानु ॥८॥१४॥
हे नानक ! समझो कि प्रभु एवं उसका सेवक एक समान ही हैं ॥८॥१४॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 14