Sukhmani Sahib Ashtpadi 13 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13 Hindi Lyrics, and Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

सुखमनी साहिब असटपदी 13

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

सलोकु ॥

संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार ॥
जो व्यक्ति संतों की शरण में आता है, उस व्यक्ति का उद्धार हो जाता है।

संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ॥१॥
हे नानक ! संतों की निन्दा करने से प्राणी पुनः पुनः जन्म लेता रहता है॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

असटपदी ॥
अष्टपदी॥

संत कै दूखनि आरजा घटै ॥
संत को दुखी करने से मनुष्य की आयु कम हो जाती है।

संत कै दूखनि जम ते नही छुटै ॥
संत को दुःखी करने से मनुष्य यमदूतों से नहीं बच सकता।

संत कै दूखनि सुखु सभु जाइ ॥
संत को दुखी करने से मनुष्य के समस्त सुख नाश हो जाते हैं।

संत कै दूखनि नरक महि पाइ ॥
संत को दुखी करने से मनुष्य नरक में जाता है।

संत कै दूखनि मति होइ मलीन ॥
संत को दुखी करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

संत कै दूखनि सोभा ते हीन ॥
संत को दुखी करने से मनुष्य की शोभा समाप्त हो जाती है।

संत के हते कउ रखै न कोइ ॥
संत से तिरस्कृत पुरुष की कोई भी रक्षा नहीं कर सकता।

संत कै दूखनि थान भ्रसटु होइ ॥
संत को दुखी करने से स्थान भ्रष्ट हो जाता है।

संत क्रिपाल क्रिपा जे करै ॥
यदि कृपा के घर संत स्वयं कृपा करे तो

नानक संतसंगि निंदकु भी तरै ॥१॥
हे नानक ! सत्संगति में निंदक भी (भवसागर से) पार हो जाता है॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

संत के दूखन ते मुखु भवै ॥
संत को दुखी करने से मुख अष्ट हो जाता है।

संतन कै दूखनि काग जिउ लवै ॥
संत को दुखी करने वाला पुरुष कौए के समान निन्दा करता रहता है।

संतन कै दूखनि सरप जोनि पाइ ॥
संत को दुखी करने से मनुष्य सर्पयोनि में पड़ता है।

संत कै दूखनि त्रिगद जोनि किरमाइ ॥
संत को दुखी करने वाला मनुष्य कीड़े इत्यादि की त्रिगद योनि में भटकता है।

संतन कै दूखनि त्रिसना महि जलै ॥
संत को दुखी करने वाला मनुष्य तृष्णा की अग्नि में जलता रहता है।

संत कै दूखनि सभु को छलै ॥
संत को दुखी करने वाला सबके साथ छल-कपट करता रहता है।

संत कै दूखनि तेजु सभु जाइ ॥
संत को दुखी करने से मनुष्य का सारा तेज-प्रताप नाश हो जाता है।

संत कै दूखनि नीचु नीचाइ ॥
संत को दुखी करने से मनुष्य नीचों का महानीच हो जाता है।

संत दोखी का थाउ को नाहि ॥
संत के दोषी का कोई सुख का सहारा नहीं रहता।

नानक संत भावै ता ओइ भी गति पाहि ॥२॥
हे नानक ! यदि संत को भला लगे तो निंदक भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

संत का निंदकु महा अतताई ॥
संत की निन्दा करने वाला सबसे बुरे कर्म करने वाला महानीच है।

संत का निंदकु खिनु टिकनु न पाई ॥
संत की निन्दा करने वाले को क्षण भर भी सुख नहीं मिलता।

संत का निंदकु महा हतिआरा ॥
संत की निन्दा करने वाला महा हत्यारा है।

संत का निंदकु परमेसुरि मारा ॥
संत की निन्दा करने वाला परमेश्वर की ओर से तिरस्कृत होता है।

संत का निंदकु राज ते हीनु ॥
संत की निन्दा करने वाला शासन से रिक्त रहता है।

संत का निंदकु दुखीआ अरु दीनु ॥
संत की निन्दा करने वाला दुखी तथा निर्धन हो जाता है।

संत के निंदक कउ सरब रोग ॥
संत की निन्दा करने वाले को सर्व रोग लग जाते हैं।

संत के निंदक कउ सदा बिजोग ॥
संत की निन्दा करने वाला सदा वियोग में रहता है।

संत की निंदा दोख महि दोखु ॥
संत की निंदा दोषों का भी दोष महापाप है।

नानक संत भावै ता उस का भी होइ मोखु ॥३॥
हे नानक ! यदि संत को भला लगे तो उसकी भी मुक्ति हो जाती है। ॥ ३॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

संत का दोखी सदा अपवितु ॥
संत का दोषी सदैव अपवित्र है।

संत का दोखी किसै का नही मितु ॥
संत का दोषी किसी भी मनुष्य का मित्र नहीं होता।

संत के दोखी कउ डानु लागै ॥
संत के दोषी को (धर्मराज से) दण्ड मिलता है।

संत के दोखी कउ सभ तिआगै ॥
संत के दोषी को सभी त्याग देते हैं।

संत का दोखी महा अहंकारी ॥
संत का दोषी महा अहंकारी होता है।

संत का दोखी सदा बिकारी ॥
संत का दोषी सदैव पापी होता है।

संत का दोखी जनमै मरै ॥
संत का दोषी जन्मता-मरता रहता है।

संत की दूखना सुख ते टरै ॥
संत का निन्दक सुख से खाली हो जाता है।

संत के दोखी कउ नाही ठाउ ॥
संत के दोषी को कोई रहने का स्थान नहीं मिलता।

नानक संत भावै ता लए मिलाइ ॥४॥
नानक ! यदि संत को लुभाए
तो वह उसको अपने साथ मिला लेता है ॥४॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

संत का दोखी अध बीच ते टूटै ॥
संत का दोषी बीच में टूट जाता है।

संत का दोखी कितै काजि न पहूचै ॥
संत का दोषी किसी काम में सफल नहीं होता।

संत के दोखी कउ उदिआन भ्रमाईऐ ॥
संत का दोषी भयानक जंगलों में भटकता रहता है।

संत का दोखी उझड़ि पाईऐ ॥
संत का दोषी कुमार्ग में डाल दिया जाता है।

संत का दोखी अंतर ते थोथा ॥
संत का दोषी वैसे ही भीतर से खाली होता है,

जिउ सास बिना मिरतक की लोथा ॥
जैसे मृतक व्यक्ति का शव श्वास के बिना होता है।

संत के दोखी की जड़ किछु नाहि ॥
संत के दोषी की जड़ बिल्कुल ही नहीं होती।

आपन बीजि आपे ही खाहि ॥
जो कुछ उसने बोया है, वह स्वयं ही खाता है।

संत के दोखी कउ अवरु न राखनहारु ॥
संत के दोषी का कोई भी रक्षक नहीं हो सकता।

नानक संत भावै ता लए उबारि ॥५॥
हे नानक ! यदि संत को भला लगे तो वह उसको बचा लेता है ॥५॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

संत का दोखी इउ बिललाइ ॥
संत का दोषी यूं विलाप करता है,

जिउ जल बिहून मछुली तड़फड़ाइ ॥
जैसे जल के बिना मछली दुःख में तड़पती है।

संत का दोखी भूखा नही राजै ॥
संत का दोषी हमेशा भूखा ही रहता है और तृप्त नहीं होता,

जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै ॥
जैसे अग्नि ईंधन से तृप्त नहीं होती।

संत का दोखी छुटै इकेला ॥
संत का दोषी वैसे ही अकेला पड़ा रहता है,

जिउ बूआड़ु तिलु खेत माहि दुहेला ॥
जैसे भीतर से जला हुआ तिल का पौधा खेत में व्यर्थ पड़ा रहता है।

संत का दोखी धरम ते रहत ॥
संत का दोषी धर्म से भ्रष्ट होता है।

संत का दोखी सद मिथिआ कहत ॥
संत का दोषी सदा झूठ बोलता रहता है।

किरतु निंदक का धुरि ही पइआ ॥
निन्दक का भाग्य आदि से ही ऐसा लिखा हुआ है।

नानक जो तिसु भावै सोई थिआ ॥६॥
हे नानक ! जो कुछ प्रभु को भला लगता है, वही होता है॥ ६॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

संत का दोखी बिगड़ रूपु होइ जाइ ॥
संत का दोषी बदसूरत रूप वाला हो जाता है।

संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ ॥
संत पर दोष लगाने वाला ईश्वर के दरबार में दण्ड प्राप्त करता है।

संत का दोखी सदा सहकाईऐ ॥
संत का दोषी सदा मृत्यु-निकट होता है।

संत का दोखी न मरै न जीवाईऐ ॥
संत का दोषी जीवन एवं मृत्यु के बीच लटकता है।

संत के दोखी की पुजै न आसा ॥
संत के दोषी की आशा पूर्ण नहीं होती।

संत का दोखी उठि चलै निरासा ॥
संत का दोषी निराश चला जाता है।

संत कै दोखि न त्रिसटै कोइ ॥
संत को दोषी को स्थिरता प्राप्त नहीं होती।

जैसा भावै तैसा कोई होइ ॥
जैसे ईश्वर की इच्छा होती है, वैसा ही मनुष्य हो जाता है।

पइआ किरतु न मेटै कोइ ॥
कोई भी व्यक्ति पूर्व जन्म के कर्मों को मिटा नहीं सकता।

नानक जानै सचा सोइ ॥७॥
हे नानक ! वह सच्चा प्रभु सब कुछ जानता है॥ ७ ॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13

सभ घट तिस के ओहु करनैहारु ॥
समस्त जीव-जन्तु उस परमात्मा के हैं।

सदा सदा तिस कउ नमसकारु ॥
उसको हमेशा प्रणाम करते रहो।

प्रभ की उसतति करहु दिनु राति ॥
भगवान का गुणानुवाद दिन-रात करते रहो।

तिसहि धिआवहु सासि गिरासि ॥
अपने प्रत्येक श्वास एवं ग्रास से उसका ही ध्यान करते रहो।

सभु कछु वरतै तिस का कीआ ॥
सब कुछ उस (परमात्मा) का किया ही होता है।

जैसा करे तैसा को थीआ ॥
ईश्वर जैसे मनुष्य को बनाता है, वैसा ही वह बन जाता है।

अपना खेलु आपि करनैहारु ॥
अपनी खेल का वह स्वयं ही निर्माता है।

दूसर कउनु कहै बीचारु ॥
दूसरा कौन उसका विचार कर सकता है।

जिस नो क्रिपा करै तिसु आपन नामु देइ ॥
परमात्मा जिस पर अपनी कृपा करता है,
उसे ही अपना नाम दे देता है।

बडभागी नानक जन सेइ ॥८॥१३॥
हे नानक ! ऐसा व्यक्ति बड़ा भाग्यशाली है॥ ८ ॥ १३॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 13