Sukhmani Sahib Ashtpadi 12 Hindi Lyrics & Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12 Hindi Lyrics, and Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
सुखमनी साहिब असटपदी 12
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
सलोकु ॥
सुखी बसै मसकीनीआ आपु निवारि तले ॥
विनग्न स्वभाव वाला पुरुष सुख में रहता है। वह अपने अहंकार को त्याग कर विनीत हो जाता है।
बडे बडे अहंकारीआ नानक गरबि गले ॥१॥
(परन्तु) हे नानक ! बड़े-बड़े अहंकारी इन्सान अपने अहंकार में ही नाश हो जाते हैं।॥ १॥
असटपदी ॥
अष्टपदी।
जिस कै अंतरि राज अभिमानु ॥
जिस व्यक्ति के हृदय में शासन का अभिमान होता है,
सो नरकपाती होवत सुआनु ॥
ऐसा व्यक्ति नरक में पड़ने वाला कुत्ता होता है।
जो जानै मै जोबनवंतु ॥
जो पुरुष अहंकार में अपने आपको अति सुन्दर (यौवन सम्पन्न) समझता है,
सो होवत बिसटा का जंतु ॥
वह विष्टा का कीड़ा होता है।
आपस कउ करमवंतु कहावै ॥
जो व्यक्ति स्वयं को शुभकर्मों वाला कहलाता है,
जनमि मरै बहु जोनि भ्रमावै ॥
वह जन्म-मरण के चक्र में फंसकर अधिकतर योनियों में भटकता रहता है।
धन भूमि का जो करै गुमानु ॥
जो प्राणी अपने धन एवं भूमि का घमण्ड करता है,
सो मूरखु अंधा अगिआनु ॥
वह मूर्ख, अन्धा एवं अज्ञानी है।
करि किरपा जिस कै हिरदै गरीबी बसावै ॥
जिस इन्सान के हृदय में प्रभु कृपा करके विनम्रता बसा देता है,
नानक ईहा मुकतु आगै सुखु पावै ॥१॥
हे नानक ! ऐसा इन्सान इहलोक में मोक्ष
तथा परलोक में सुख प्राप्त करता है॥ १॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
धनवंता होइ करि गरबावै ॥
जो आदमी धनवान होकर अपने धन का अभिमान करता है,
त्रिण समानि कछु संगि न जावै ॥
एक तिनके के बराबर भी कुछ उसके साथ नहीं जाता।
बहु लसकर मानुख ऊपरि करे आस ॥
जो आदमी बहुत बड़ी सेना एवं लोगों पर आशा लगाए रखता है,
पल भीतरि ता का होइ बिनास ॥
उसका एक क्षण में ही नाश हो जाता है।
सभ ते आप जानै बलवंतु ॥
जो आदमी अपने आपको सबसे शक्तिशाली समझता है,
खिन महि होइ जाइ भसमंतु ॥
वह एक क्षण में भस्म हो जाता है।
किसै न बदै आपि अहंकारी ॥
जो आदमी अपने अहंकार में किसी की भी परवाह नहीं करता,
धरम राइ तिसु करे खुआरी ॥
यमराज अन्त में उसे बड़ा दुःख देता है।
गुर प्रसादि जा का मिटै अभिमानु ॥
हे नानक ! गुरु की कृपा से जिस इन्सान का अभिमान मिट जाता है,
सो जनु नानक दरगह परवानु ॥२॥
ऐसा इन्सान ही प्रभु के दरबार में स्वीकार होता है॥ २॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
कोटि करम करै हउ धारे ॥
यदि व्यक्ति करोड़ों शुभ कर्म करता हुआ अभिमान करे,
स्रमु पावै सगले बिरथारे ॥
तो वह दुःख ही उठाता है, उसके तमाम कार्य व्यर्थ हो जाते हैं।
अनिक तपसिआ करे अहंकार ॥
जो व्यक्ति अनेक तपस्या करके अहंकार करता है,
नरक सुरग फिरि फिरि अवतार ॥
वह पुनः पुनः नरक-स्वर्ग में जन्म लेता रहता है।
अनिक जतन करि आतम नही द्रवै ॥
जिसका हृदय अधिकतर यत्न करने के बावजूद भी विनम्र नहीं होता,
हरि दरगह कहु कैसे गवै ॥
तो बताओ, वह पुरुष भगवान के दरबार में कैसे जा सकता है?
आपस कउ जो भला कहावै ॥
जो पुरुष अपने आपको भला कहलाता है,
तिसहि भलाई निकटि न आवै ॥
भलाई उसके निकट नहीं आती।
सरब की रेन जा का मनु होइ ॥
हे नानक ! जिसका मन सबकी चरण-धूलि बन जाता है,
कहु नानक ता की निरमल सोइ ॥३॥
उसकी निर्मल शोभा होती है॥ ३॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
जब लगु जानै मुझ ते कछु होइ ॥
जब तक इन्सान यह समझने लगता है कि मुझे से कुछ हो सकता है,
तब इस कउ सुखु नाही कोइ ॥
तब तक उसको कोई सुख उपलब्ध नहीं होता।
जब इह जानै मै किछु करता ॥
जब तक इन्सान यह समझने लगता है कि मैं कुछ करता हूँ,
तब लगु गरभ जोनि महि फिरता ॥
तब तक वह गर्भ की योनियों में भटकता रहता है।
जब धारै कोऊ बैरी मीतु ॥
जब तक इन्सान किसी को शत्रु एवं किसी को मित्र समझता है,
तब लगु निहचलु नाही चीतु ॥
तब तक उसका मन स्थिर नहीं होता।
जब लगु मोह मगन संगि माइ ॥
जब तक इन्सान माया के मोह में मग्न रहता है,
तब लगु धरम राइ देइ सजाइ ॥
तब तक यमराज उसको दण्डित करता रहता है।
प्रभ किरपा ते बंधन तूटै ॥
प्रभु की कृपा से इन्सान के बन्धन टूट जाते हैं।
गुर प्रसादि नानक हउ छूटै ॥४॥
हे नानक ! गुरु की कृपा से अहंकार मिट जाता है॥ ४॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
सहस खटे लख कउ उठि धावै ॥
इन्सान हजारों कमा कर भी लाखों के लिए भाग-दौड़ करता है।
त्रिपति न आवै माइआ पाछै पावै ॥
धन-दौलत की तलाश में उसकी तृप्ति नहीं होती।
अनिक भोग बिखिआ के करै ॥
इन्सान अधिकतर विषय-विकारों के भोग में लगा रहता है,
नह त्रिपतावै खपि खपि मरै ॥
परन्तु वह तृप्त नहीं होता और उसकी अभिलाषा करता हुआ मर मिटता है।
बिना संतोख नही कोऊ राजै ॥
संतोष के बिना किसी को तृप्ति नहीं होती।
सुपन मनोरथ ब्रिथे सभ काजै ॥
उसके सब कार्य स्वप्न के मनोरथ की भाँति व्यर्थ हैं।
नाम रंगि सरब सुखु होइ ॥
भगवान के नाम रंग द्वारा सर्व सुख प्राप्त हो जाते हैं।
बडभागी किसै परापति होइ ॥
किसी भाग्यशाली इन्सान को ही नाम की प्राप्ति होती है।
करन करावन आपे आपि ॥
प्रभु स्वयं सब कुछ करने तथा जीवों से कराने में समर्थ है।
सदा सदा नानक हरि जापि ॥५॥
हे नानक ! हरि के नाम का जाप सदैव करो ॥५॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
करन करावन करनैहारु ॥
केवल परमात्मा ही करने एवं कराने वाला है।
इस कै हाथि कहा बीचारु ॥
विचार कर देख लो, प्राणी के वश में कुछ नहीं।
जैसी द्रिसटि करे तैसा होइ ॥
जैसी दृष्टि परमात्मा धारण करता है, मनुष्य वैसा ही हो जाता है।
आपे आपि आपि प्रभु सोइ ॥
वह प्रभु स्वयं ही सब कुछ है।
जो किछु कीनो सु अपनै रंगि ॥
जो कुछ उसने किया है, वह उसकी इच्छा के अनुकूल है।
सभ ते दूरि सभहू कै संगि ॥
वह सबसे दूर है, फिर भी सबके साथ है।
बूझै देखै करै बिबेक ॥
वह समझता, देखता और निर्णय करता है।
आपहि एक आपहि अनेक ॥
परमात्मा स्वयं ही एक है और स्वयं ही अनेक रूप है।
मरै न बिनसै आवै न जाइ ॥
परमात्मा न ही मरता है और न ही नाश होता है,
वह न ही आता है और न ही जाता है।
नानक सद ही रहिआ समाइ ॥६॥
हे नानक ! परमात्मा सदा सब में समाया हुआ है ॥६॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
आपि उपदेसै समझै आपि ॥
वह स्वयं ही उपदेश देता है और स्वयं ही समझता है।
आपे रचिआ सभ कै साथि ॥
परमात्मा स्वयं ही सबके साथ मिला हुआ है।
आपि कीनो आपन बिसथारु ॥
अपना विस्तार उसने स्वयं ही किया है।
सभु कछु उस का ओहु करनैहारु ॥
प्रत्येक वस्तु उसकी है, वह सृजनहार है।
उस ते भिंन कहहु किछु होइ ॥
बताओ, उससे अलग कुछ हो सकता है?
थान थनंतरि एकै सोइ ॥
एक ईश्वर स्थानों एवं उनकी सीमाओं पर सर्वत्र मौजूद है।
अपुने चलित आपि करणैहार ॥
अपनी लीलाओं को वह स्वयं ही करने वाला है।
कउतक करै रंग आपार ॥
वह कौतुक रचता है और उसके रंग अनन्त हैं।
मन महि आपि मन अपुने माहि ॥
“(जीवों के) मन में स्वयं वास कर रहा है,
(जीवों को) अपने मन में स्थिर किए बैठा है।
नानक कीमति कहनु न जाइ ॥७॥
हे नानक ! उस (परमात्मा) का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता ॥ ७॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 12
सति सति सति प्रभु सुआमी ॥
जगत् का स्वामी परमात्मा सदैव सत्य है।
गुर परसादि किनै वखिआनी ॥
यह बात गुरु की कृपा से किसी विरले ने ही बखान की है।
सचु सचु सचु सभु कीना ॥
परमात्मा जिसने सबकी रचना की है, वह भी सत्य है।
कोटि मधे किनै बिरलै चीना ॥
करोड़ों में कोई विरला ही उसको जानता है।
भला भला भला तेरा रूप ॥
हे प्रभु ! तेरा रूप कितना भला-सुन्दर है।
अति सुंदर अपार अनूप ॥
हे ईश्वर ! तुम अत्यंत सुन्दर, अपार एवं अनूप हो।
निरमल निरमल निरमल तेरी बाणी ॥
हे परमात्मा ! तेरी वाणी अति पवित्र, निर्मल एवं मधुर है।
घटि घटि सुनी स्रवन बख्याणी ॥
प्रत्येक व्यक्ति इसको कानों से सुनता एवं व्याख्या करता है।
पवित्र पवित्र पवित्र पुनीत ॥
वह पवित्र पावन हो जाता है
नामु जपै नानक मनि प्रीति ॥८॥१२॥
हे नानक ! जो व्यक्ति अपने मन में प्रेम से भगवान के नाम का जाप करता है। ॥८॥१२॥