Sukhmani Sahib Ashtpadi 5 Hindi Lyrics & Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5 Hindi Lyrics, and Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
सुखमनी साहिब असटपदी 5
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
सलोकु ॥
देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ ॥
देने वाले दाता प्रभु को त्याग कर प्राणी दूसरे स्वादों में लगता है, (परन्तु)
नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाइ ॥१॥
हे नानक ! ऐसा प्राणी कदापि सफल नहीं होता,
क्योंकि प्रभु के नाम के बिना मान-सम्मान नहीं रहता॥ १॥
असटपदी ॥
अष्टपदी॥
दस बसतू ले पाछै पावै ॥
मनुष्य (ईश्वर से) दस वस्तुएँ लेकर पीछे सँभाल लेता है।
एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै ॥
(परन्तु) एक वस्तु की खातिर वह अपना विश्वास गंवा लेता है।
एक भी न देइ दस भी हिरि लेइ ॥
यदि प्रभु एक वस्तु भी न देवे और दस भी छीन ले
तउ मूड़ा कहु कहा करेइ ॥
तो बताओ यह मूर्ख क्या कर सकता है ?
जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा ॥
जिस ठाकुर के समक्ष कोई जोर नहीं चल सकता,
ता कउ कीजै सद नमसकारा ॥
उसके समक्ष सदैव प्रणाम करना चाहिए।
जा कै मनि लागा प्रभु मीठा ॥
जिसके मन को प्रभु मीठा लगता है,
सरब सूख ताहू मनि वूठा ॥
समस्त सुख उसके मन में वास करते हैं।
जिसु जन अपना हुकमु मनाइआ ॥
हे नानक ! जिस पुरुष से परमेश्वर अपने हुक्म का पालन करवाता है,
सरब थोक नानक तिनि पाइआ ॥१॥
संसार के समस्त पदार्थ उसने पा लिए हैं ॥१॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
अगनत साहु अपनी दे रासि ॥
साहूकार प्रभु प्राणी को (पदार्थों की) असंख्य पूँजी प्रदान करता है।
खात पीत बरतै अनद उलासि ॥
प्राणी इसको आनंद एवं उल्लास से खाता-पीता एवं उपयोग करता है।
अपुनी अमान कछु बहुरि साहु लेइ ॥
यदि साहूकार प्रभु अपनी धरोहर में से कुछ वापिस ले ले,
अगिआनी मनि रोसु करेइ ॥
तो मूर्ख व्यक्ति अपने मन में क्रोध करता है।
अपनी परतीति आप ही खोवै ॥
इस तरह वह अपना विश्वास स्वयं ही गंवा लेता है।
बहुरि उस का बिस्वासु न होवै ॥
प्रभु दोबारा उस पर विश्वास नहीं करता।
जिस की बसतु तिसु आगै राखै ॥
जिसकी वस्तु है, उसके समक्ष (स्वयं ही खुशी से) रख देनी चाहिए
प्रभ की आगिआ मानै माथै ॥
और प्रभु की आज्ञा उसके लिए सहर्ष मानने योग्य है।
उस ते चउगुन करै निहालु ॥
प्रभु उसे पहले की अपेक्षा चौगुणा कृतार्थ कर देता है।
नानक साहिबु सदा दइआलु ॥२॥
हे नानक ! ईश्वर सदैव ही दयालु है ॥२॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
अनिक भाति माइआ के हेत ॥
माया के मोह अनेक प्रकार के हैं,
सरपर होवत जानु अनेत ॥
परन्तु यह तमाम अन्त में नाश हो जाने वाले समझो।
बिरख की छाइआ सिउ रंगु लावै ॥
मनुष्य वृक्ष की छाया से प्रेम करता है। (परन्तु)
ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै ॥
जब वह नाश होता है
तो वह अपने मन में पश्चाताप करता है।
जो दीसै सो चालनहारु ॥
दृष्टिगोचर जगत् क्षणभंगुर है,
लपटि रहिओ तह अंध अंधारु ॥
इस जगत् से ज्ञानहीन इन्सान अपनत्व बनाए बैठा है।
बटाऊ सिउ जो लावै नेह ॥
जो भी पुरुष यात्री से प्रेम लगाता है,
ता कउ हाथि न आवै केह ॥
आखिरकार उसके हाथ कुछ नहीं आता।
मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ॥
हे मेरे मन ! भगवान के नाम का प्रेम सुखदायक है।
करि किरपा नानक आपि लए लाई ॥३॥
हे नानक ! भगवान उनको अपने साथ लगाता है, जिन पर वह कृपा धारण करता है ॥३॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
मिथिआ तनु धनु कुट्मबु सबाइआ ॥
यह शरीर, धन-दौलत एवं परिवार सब झूठा है।
मिथिआ हउमै ममता माइआ ॥
अहंकार, ममता एवं माया भी झूठे हैं।
मिथिआ राज जोबन धन माल ॥
राज्य, यौवन, धन एवं सम्पति सब कुछ मिथ्या हैं।
मिथिआ काम क्रोध बिकराल ॥
काम एवं विकराल क्रोध सब नश्वर हैं।
मिथिआ रथ हसती अस्व बसत्रा ॥
सुन्दर रथ, हाथी, घोड़े एवं सुन्दर वस्त्र ये सभी नश्वर (मिथ्या ) हैं।
मिथिआ रंग संगि माइआ पेखि हसता ॥
धन-दौलत संग्रह करने की प्रीति, जिसे देख कर मनुष्य हँसता है, यह भी मिथ्या है।
मिथिआ ध्रोह मोह अभिमानु ॥
छल-कपट, सांसारिक मोह एवं अभिमान भी क्षणभंगुर हैं।
मिथिआ आपस ऊपरि करत गुमानु ॥
अपने ऊपर घमण्ड करना झूठा है।
असथिरु भगति साध की सरन ॥
भगवान की भक्ति एवं संतों की शरण अटल है।
नानक जपि जपि जीवै हरि के चरन ॥४॥
हे नानक ! भगवान के चरणों को ही जप कर प्राणी वास्तविक जीवन जीता है ।४॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
मिथिआ स्रवन पर निंदा सुनहि ॥
इन्सान के वे कान झूठे हैं जो पराई निन्दा सुनते हैं।
मिथिआ हसत पर दरब कउ हिरहि ॥
वे हाथ भी झूठे हैं जो पराया धन चुराते हैं।
मिथिआ नेत्र पेखत पर त्रिअ रूपाद ॥
वे नेत्र मिथ्या हैं, जो पराई नारी का सौंदर्य रूप देखते हैं।
मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद ॥
वह जिव्हा भी मिथ्या है, जो पकवान एवं दूसरे स्वाद भोगती है।
मिथिआ चरन पर बिकार कउ धावहि ॥
वे चरण झूठे हैं, जो दूसरों का बुरा करने के लिए दौड़ते हैं।
मिथिआ मन पर लोभ लुभावहि ॥
वह मन भी झूठा है जो पराए धन का लोभ करता है।
मिथिआ तन नही परउपकारा ॥
वे शरीर मिथ्या है, जो परोपकार नहीं करता।
मिथिआ बासु लेत बिकारा ॥
वह नाक व्यर्थ है, जो विषय-विकारों की गंध सूंघ रही है।
बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ॥
ऐसी समझ के बिना प्रत्येक अंग नश्वर है।
सफल देह नानक हरि हरि नाम लए ॥५॥
हे नानक ! वह शरीर सफल है, जो हरि-परमेश्वर का नाम जपता रहता है ।॥५॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
बिरथी साकत की आरजा ॥
शाक्त इन्सान का जीवन व्यर्थ है।
साच बिना कह होवत सूचा ॥
सत्य के बिना वह कैसे शुद्ध हो सकता है?
बिरथा नाम बिना तनु अंध ॥
नाम के बिना अज्ञानी पुरुष का शरीर व्यर्थ है। (क्योंकि)
मुखि आवत ता कै दुरगंध ॥
उसके मुख से बदबू आती है।
बिनु सिमरन दिनु रैनि ब्रिथा बिहाइ ॥
प्रभु के सिमरन के बिना दिन और रात व्यर्थ गुजर जाते हैं,
मेघ बिना जिउ खेती जाइ ॥
जिस तरह वर्षा के बिना फसल नष्ट हो जाती है।
गोबिद भजन बिनु ब्रिथे सभ काम ॥
गोविन्द के भजन बिना तमाम कार्य व्यर्थ हैं,
जिउ किरपन के निरारथ दाम ॥
जैसे कंजूस पुरुष की दौलत व्यर्थ है।
धंनि धंनि ते जन जिह घटि बसिओ हरि नाउ ॥
वह इन्सान बड़ा भाग्यशाली है,
जिसके हृदय में भगवान का नाम वास करता है।
नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥६॥
हे नानक ! मैं उन पर कुर्बान जाता हूँ ॥६॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
रहत अवर कछु अवर कमावत ॥
मनुष्य कहता कुछ है और करता बिल्कुल ही कुछ और है।
मनि नही प्रीति मुखहु गंढ लावत ॥
उसके हृदय में (प्रभु के प्रति) प्रेम नहीं लेकिन मुख से व्यर्थ बातें करता है।
जाननहार प्रभू परबीन ॥
सब कुछ जानने वाला प्रभु बड़ा चतुर है,
बाहरि भेख न काहू भीन ॥
(वह कभी) किसी के बाहरी वेष से खुश नहीं होता।
अवर उपदेसै आपि न करै ॥
जो दूसरों को उपदेश देता है और स्वयं उस पर अनुसरण नहीं करता,
आवत जावत जनमै मरै ॥
वह (जगत् में) आता-जाता एवं जन्मता-मरता रहता है।
जिस कै अंतरि बसै निरंकारु ॥
जिस पुरुष के हृदय में निरंकार वास करता है,
तिस की सीख तरै संसारु ॥
उसके उपदेश से समूचा जगत् (विकारों से) बच जाता है।
जो तुम भाने तिन प्रभु जाता ॥
हे प्रभु ! जो तुझे अच्छे लगते हैं, केवल वही तुझे जान सकते हैं।
नानक उन जन चरन पराता ॥७॥
हे नानक ! मैं ऐसे भक्तों के चरण-स्पर्श करता हूँ ॥७॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 5
करउ बेनती पारब्रहमु सभु जानै ॥
मैं उस परब्रह्म के समक्ष प्रार्थना करता हूँ, जो सब कुछ जानता है।
अपना कीआ आपहि मानै ॥
अपने उत्पन्न किए प्राणी को वह स्वयं ही सम्मान प्रदान करता है।
आपहि आप आपि करत निबेरा ॥
ईश्वर स्वयं ही (प्राणियों के कर्मों के अनुसार) न्याय करता है।
किसै दूरि जनावत किसै बुझावत नेरा ॥
किसी को यह सूझ प्रदान करता है कि ईश्वर हमारे समीप है
और किसी को लगता है कि ईश्वर कहीं दूर है।
उपाव सिआनप सगल ते रहत ॥
समस्त कोशिशों एवं चतुराईयों से ईश्वर परे है।
सभु कछु जानै आतम की रहत ॥
(क्योंकि) वह मनुष्य के मन की अवस्था भलीभाँति समझता है।
जिसु भावै तिसु लए लड़ि लाइ ॥
वह उसको अपने साथ मिला लेता है, जो उसको भला लगता है।
थान थनंतरि रहिआ समाइ ॥
प्रभु समस्त स्थानों एवं स्थानों की दूरी पर सर्वव्यापक हो रहा है।
सो सेवकु जिसु किरपा करी ॥
जिस पर ईश्वर कृपा धारण करता है, वही उसका सेवक है।
निमख निमख जपि नानक हरी ॥८॥५॥
हे नानक ! क्षण-क्षण हरि का जाप करते रहो ॥८॥ ५॥