Sukhmani Sahib Ashtpadi 4 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4 Hindi Lyrics, and Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

सुखमनी साहिब असटपदी 4

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

सलोकु ॥

निरगुनीआर इआनिआ सो प्रभु सदा समालि ॥
हे गुणविहीन एवं मूर्ख जीव ! उस ईश्वर को सदैव स्मरण कर।

जिनि कीआ तिसु चीति रखु नानक निबही नालि ॥१॥
हे नानक ! जिसने तुझे उत्पन्न किया है, उसको अपने ह्रदय में बसा,
केवल ईश्वर ही तेरा साथ देगा ॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

असटपदी ॥
अष्टपदी॥

रमईआ के गुन चेति परानी ॥
हे नश्वर प्राणी ! सर्वव्यापक राम के गुण स्मरण कर।

कवन मूल ते कवन द्रिसटानी ॥
तेरा क्या मूल है और तू कैसा दिखाई देता हे।

जिनि तूं साजि सवारि सीगारिआ ॥
जिसने तुझे रचा, संवारा एवं सुशोभित किया है,

गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥
जिसने तेरी गर्भ की अग्नि में रक्षा की है,

बार बिवसथा तुझहि पिआरै दूध ॥
जिसने तुझे बाल्यावस्था में पीने के लिए दूध दिया है,

भरि जोबन भोजन सुख सूध ॥
जिसने तुझे यौवन में भोजन, सुख एवं सूझ दी

बिरधि भइआ ऊपरि साक सैन ॥
और जिसने जब तू बूढ़ा हुआ तो, सगे-संबंधी एवं मित्र

मुखि अपिआउ बैठ कउ दैन ॥
बैठे ही मुँह में भोजन डालने के लिए -तेरी सेवा के लिए दिए हैं।

इहु निरगुनु गुनु कछू न बूझै ॥
यह गुणविहीन मनुष्य किए हुए उपकारों की कुछ भी कद्र नहीं करता।

बखसि लेहु तउ नानक सीझै ॥१॥
नानक का कथन है कि हे ईश्वर ! यदि तू उसको क्षमा कर दे
तो ही वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है ॥१॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

जिह प्रसादि धर ऊपरि सुखि बसहि ॥
(हे प्राणी !) जिसकी कृपा से तू धरती पर सुखपूर्वक रहता है

सुत भ्रात मीत बनिता संगि हसहि ॥
और अपने पुत्र, भाई, मित्र एवं पत्नी के साथ हँसता खेलता है,

जिह प्रसादि पीवहि सीतल जला ॥
जिसकी कृपा से तू शीतल जल पीता है

सुखदाई पवनु पावकु अमुला ॥
और तुझे प्रसन्न करने वाली सुखदायक वायु एवं अमूल्य अग्नि मिली है,

जिह प्रसादि भोगहि सभि रसा ॥
जिसकी कृपा से तुम तमाम रस भोगते हो

सगल समग्री संगि साथि बसा ॥
और समस्त पदार्थों के साथ तुम रहते हो,

दीने हसत पाव करन नेत्र रसना ॥
जिसने तुझे हाथ, पैर, कान, आंख एवं जीभ प्रदान किए हैं,

तिसहि तिआगि अवर संगि रचना ॥
(हे प्राणी !) तुम उस ईश्वर को भुलाकर दूसरों के साथ प्रेम करते हो।

ऐसे दोख मूड़ अंध बिआपे ॥
ऐसे दोष ज्ञानहीन मूर्ख के साथ फँसे हुए हैं।

नानक काढि लेहु प्रभ आपे ॥२॥
नानक का कथन है कि हे प्रभु! इनकी तुम स्वयं ही रक्षा करो ॥२॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

आदि अंति जो राखनहारु ॥
जो परमात्मा आदि से लेकर अंत तक (जन्म से मृत्यु तक) सबका रक्षक है,

तिस सिउ प्रीति न करै गवारु ॥
मूर्ख पुरुष उससे प्रेम नहीं करता।

जा की सेवा नव निधि पावै ॥
जिसकी सेवा से उसको नौ निधियाँ मिलती हैं,

ता सिउ मूड़ा मनु नही लावै ॥
उसे मूर्ख जीव अपने हृदय से नहीं लगाता।

जो ठाकुरु सद सदा हजूरे ॥
जो ठाकुर सदैव ही प्रत्यक्ष है,

ता कउ अंधा जानत दूरे ॥
उसको ज्ञानहीन जीव दूर जानता है।

जा की टहल पावै दरगह मानु ॥
जिसकी सेवा-भक्ति से उसने प्रभु के दरबार में शोभा प्राप्त होती है,

तिसहि बिसारै मुगधु अजानु ॥
मूर्ख एवं अज्ञानी पुरुष उस ईश्वर को भुला देता है।

सदा सदा इहु भूलनहारु ॥
नश्वर प्राणी हमेशा ही भूल करता रहता है।

नानक राखनहारु अपारु ॥३॥
हे नानक ! केवल अनन्त ईश्वर ही रक्षक है ॥३॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

रतनु तिआगि कउडी संगि रचै ॥
नाम-रत्न को त्याग कर मनुष्य माया रूपी कौड़ी के संग खुश रहता है।

साचु छोडि झूठ संगि मचै ॥
वह सत्य को त्यागकर झूठ के साथ प्रसन्न होता है।

जो छडना सु असथिरु करि मानै ॥
जिस दुनिया के पदार्थों को उसने त्याग जाना है, उसको वह सदैव स्थिर जानता है।

जो होवनु सो दूरि परानै ॥
जो कुछ होना है, उसको वह दूर समझता है।

छोडि जाइ तिस का स्रमु करै ॥
जिसे उसे छोड़ जाना है, उसके लिए वह कष्ट उठाता है।

संगि सहाई तिसु परहरै ॥
वह उस सहायक (प्रभु) को त्यागता है, जो सदैव उसके साथ है।

चंदन लेपु उतारै धोइ ॥
वह चन्दन के लेप को धोकर उतार देता है।

गरधब प्रीति भसम संगि होइ ॥
गधे का केवल भस्म (राख) से ही प्रेम है।

अंध कूप महि पतित बिकराल ॥
मनुष्य भयंकर अंधेरे कुएँ में गिरा पड़ा है।

नानक काढि लेहु प्रभ दइआल ॥४॥
नानक की प्रार्थना है कि हे दया के घर ईश्वर !
इन्हें तुम अन्धेरे कुएँ से बाहर निकाल लो ॥४॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

करतूति पसू की मानस जाति ॥
जाति मनुष्य की है, लेकिन कर्म पशुओं वाले हैं।

लोक पचारा करै दिनु राति ॥
इन्सान रात-दिन लोगों के लिए आडम्बर करता रहता है।

बाहरि भेख अंतरि मलु माइआ ॥
बाहर (देहि में) वह धार्मिक वेष धारण करता है
परन्तु उसके मन में माया की मैल है।

छपसि नाहि कछु करै छपाइआ ॥
चाहे जितना दिल करे वह छिपाए परन्तु
वह अपनी असलियत को छिपा नहीं सकता।

बाहरि गिआन धिआन इसनान ॥
वह ज्ञान, ध्यान एवं स्नान करने का दिखावा करता है।

अंतरि बिआपै लोभु सुआनु ॥
परन्तु उसके मन को लालच रूपी कुत्ता दबाव डाल रहा है।

अंतरि अगनि बाहरि तनु सुआह ॥
उसके शरीर में तृष्णा की अग्नि विद्यमान है
और बाहर शरीर पर वैराग्य की भस्म विद्यमान है।

गलि पाथर कैसे तरै अथाह ॥
अपनी गर्दन पर वासना रूपी पत्थर के साथ वह
अति गहरे सागर से किस तरह पार हो सकता है ?

जा कै अंतरि बसै प्रभु आपि ॥
हे नानक ! जिसके हृदय में ईश्वर स्वयं निवास करता है

नानक ते जन सहजि समाति ॥५॥
ऐसा व्यक्ति सहज ही प्रभु में समा जाता है ॥५॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

सुनि अंधा कैसे मारगु पावै ॥
केवल सुनने से ही अन्धा पुरुष किस तरह मार्ग ढूंढ सकता है ?

करु गहि लेहु ओड़ि निबहावै ॥
उसका हाथ पकड़ लो (चूंकि यह)
अन्त तक प्रेम का निर्वाह कर सके।

कहा बुझारति बूझै डोरा ॥
बहरा पुरुष बात किस तरह समझ सकता है ?

निसि कहीऐ तउ समझै भोरा ॥
जब हम रात कहते हैं तो वह दिन समझता है।

कहा बिसनपद गावै गुंग ॥
गूंगा पुरुष किस तरह बिसनपद गा सकता है?

जतन करै तउ भी सुर भंग ॥
यदि वह कोशिश भी करे तो भी उसका स्वर भंग हो जाता है।

कह पिंगुल परबत पर भवन ॥
लंगड़ा किस तरह पहाड़ पर चक्कर काट सकता है ?

नही होत ऊहा उसु गवन ॥
उसका वहाँ जाना संभव नहीं।

करतार करुणा मै दीनु बेनती करै ॥
हे नानक ! हे करुणामय ! हे करतार ! (यह) दीन सेवक प्रार्थना करता है कि

नानक तुमरी किरपा तरै ॥६॥
तेरी कृपा से ही जीव भवसागर से पार हो सकता है ॥६॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

संगि सहाई सु आवै न चीति ॥
जो परमात्मा जीव का साथी एवं सहायक है,
वह उसे अपने चित्त में याद नहीं करता।

जो बैराई ता सिउ प्रीति ॥
अपितु वह उससे प्रेम करता है, जो उसका शत्रु है।

बलूआ के ग्रिह भीतरि बसै ॥
वह बालू (रेत) के घर में ही रहता है।

अनद केल माइआ रंगि रसै ॥
वह आनंद के खेल एवं धन के रंग (खुशी) भोगता है।

द्रिड़ु करि मानै मनहि प्रतीति ॥
वह इन रंगरलियों का भरोसा मन में दृढ़ समझता है।

कालु न आवै मूड़े चीति ॥
लेकिन मूर्ख जीव अपने मन में काल (मृत्यु) को स्मरण ही नहीं करता।

बैर बिरोध काम क्रोध मोह ॥
वैर, विरोध, कामवासना, क्रोध, मोह,

झूठ बिकार महा लोभ ध्रोह ॥
झूठ, पाप, महालोभ एवं छल-कपट की

इआहू जुगति बिहाने कई जनम ॥
युक्तियों में मनुष्य ने अनेकों जन्म व्यतीत कर दिए हैं।

नानक राखि लेहु आपन करि करम ॥७॥
नानक की विनती है कि हे प्रभु !
अपनी कृपा धारण करके जीव को भवसागर से बचाले ॥७॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4

तू ठाकुरु तुम पहि अरदासि ॥
(हे ईश्वर !) तू हमारा ठाकुर है और हमारी तुझ से ही प्रार्थना है।

जीउ पिंडु सभु तेरी रासि ॥
यह आत्मा एवं शरीर सब तेरी ही पूंजी है।

म मात पिता हम बारिक तेरे ॥
तुम हमारे माता-पिता हो और हम तेरे बालक हैं।

तुमरी क्रिपा महि सूख घनेरे ॥
तेरी कृपा में बहुत सारे सुख हैं।

कोइ न जानै तुमरा अंतु ॥
हे प्रभु ! तेरा अन्त कोई भी नहीं जानता।

ऊचे ते ऊचा भगवंत ॥
तू सर्वोपरि भगवान है।

सगल समग्री तुमरै सूत्रि धारी ॥
समूचा जगत् तेरे सूत्र (धागे) में पिरोया हुआ है।

तुम ते होइ सु आगिआकारी ॥
जो कुछ (सृष्टि) तुझ से उत्पन्न हुआ है, वह तेरा आज्ञाकारी है।

तुमरी गति मिति तुम ही जानी ॥
तेरी गति एवं मर्यादा को केवल तू ही जानता है।

नानक दास सदा कुरबानी ॥८॥४॥
हे नानक ! तेरा सेवक सदा ही तुझ पर कुर्बान जाता है ॥८॥४॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 4