Sukhmani Sahib Ashtpadi 19 Hindi Lyrics & Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19 Hindi Lyrics, and Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19
सुखमनी साहिब असटपदी 19
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19
सलोकु ॥
साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ॥
हे प्राणी ! भगवान के भजन के सिवाय कुछ भी साथ नहीं जाता, सभी विषय-विकार धूल समान हैं।
हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥१॥
हे नानक ! हरि-परमेश्वर के नाम-स्मरण की कमाई करना ही अति उत्तम धन है॥१॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19
असटपदी ॥
अष्टपदी ॥
संत जना मिलि करहु बीचारु ॥
संतजनों की संगति में मिलकर यही विचार करो।
एकु सिमरि नाम आधारु ॥
एक ईश्वर को स्मरण करो और नाम का सहारा लो।
अवरि उपाव सभि मीत बिसारहु ॥
हे मेरे मित्र ! दूसरे तमाम प्रयास भुला दो।
चरन कमल रिद महि उरि धारहु ॥
ईश्वर के चरण कमल अपने मन एवं हृदय में बसाओ।
करन कारन सो प्रभु समरथु ॥
वह ईश्वर तमाम कार्य करने व जीव से करवाने में सामर्थ्य रखता है।
द्रिड़ु करि गहहु नामु हरि वथु ॥
ईश्वर के नाम रूपी वस्तु को दृढ़ करके पकड़ लो।
इहु धनु संचहु होवहु भगवंत ॥
इस (प्रभु के नाम रूपी) धन को एकत्रित करो और भाग्यशाली बन जाओ।
संत जना का निरमल मंत ॥
संतजनों का मंत्र पवित्र-पावन है।
एक आस राखहु मन माहि ॥
एक ईश्वर की आशा अपने मन में रखो !
सरब रोग नानक मिटि जाहि ॥१॥
हे नानक ! इस तरह तेरे तमाम रोग मिट जाएँगे।॥ १ ॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19
जिसु धन कउ चारि कुंट उठि धावहि ॥
“(हे मित्र !) जिस धन हेतु तू चारों ओर भागता-फिरता है,
सो धनु हरि सेवा ते पावहि ॥
वह धन तुझे ईश्वर की सेवा से प्राप्त होगा।
जिसु सुख कउ नित बाछहि मीत ॥
हे मेरे मित्र ! जिस सुख की तू नित्य इच्छा करता है,
सो सुखु साधू संगि परीति ॥
वह सुख तुझे संतों की संगति में प्रेम करने से मिलेगा।
जिसु सोभा कउ करहि भली करनी ॥
जिस शोभा के लिए तू शुभ कर्म करता है,
सा सोभा भजु हरि की सरनी ॥
वह शोभा भगवान की शरण में जाने से मिलती है।
अनिक उपावी रोगु न जाइ ॥
जो रोग अनेक प्रयासों से नहीं मिटता,
रोगु मिटै हरि अवखधु लाइ ॥
वह रोग हरि नाम रूपी औषधि लेने से मिट जाता है।
सरब निधान महि हरि नामु निधानु ॥
तमाम खजानों में ईश्वर का नाम सर्वश्रेष्ठ खजाना है।
जपि नानक दरगहि परवानु ॥२॥
हे नानक ! उसके नाम का जाप कर, ईश्वर के दरबार में स्वीकार हो जाओगे ॥२॥
मनु परबोधहु हरि कै नाइ ॥
अपने मन को भगवान के नाम द्वारा जगाओ।
दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥
दसों दिशाओं में भटकता हुआ यह मन इस तरह अपने गृह आ जाएगा।
ता कउ बिघनु न लागै कोइ ॥
उसे कोई संकट नहीं आता
जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥
जिसके हृदय में वह ईश्वर बसता है,
कलि ताती ठांढा हरि नाउ ॥
यह कलियुग गर्म (अग्नि) है और हरि का नाम शीतल है।
सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ॥
उसे सदैव स्मरण करो एवं सुख पाओ।
भउ बिनसै पूरन होइ आस ॥
नाम-सिमरन से भय नाश हो जाता है और आशा पूर्ण हो जाती है।
भगति भाइ आतम परगास ॥
प्रभु की भक्ति के साथ प्रेम करने से आत्मा उज्ज्वल हो जाती है।
तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ॥
जो नाम-स्मरण करता है, उसके हृदय-घर में अनश्वर प्रभु आ बसता है।
कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥
हे नानक ! (नाम का जाप करने से) यम की फाँसी कट जाती है॥ ३॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19
ततु बीचारु कहै जनु साचा ॥
वो ही सच्चा मनुष्य है, जो सार-तत्व के स्मरण का उपदेश देता है।
जनमि मरै सो काचो काचा ॥
वह बिल्कुल कच्चा (झूठा) है, जो आवागमन (जन्म-मरण के चक्र) में पड़ता है।
आवा गवनु मिटै प्रभ सेव ॥
प्रभु की सेवा से आवागमन मिट जाता है।
आपु तिआगि सरनि गुरदेव ॥
अपना अहंत्व त्याग दे और गुरुदेव की शरण ले।
इउ रतन जनम का होइ उधारु ॥
इस तरह अनमोल जीवन का उद्धार हो जाता है।
हरि हरि सिमरि प्रान आधारु ॥
हरि-परमेश्वर की आराधना कर, जो तेरे प्राणों का आधार है।
अनिक उपाव न छूटनहारे ॥
अनेक उपाय करने से छुटकारा नहीं होता।
सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥
चाहे स्मृतियों, शास्त्रों व वेदों का विचार करके देख लो।
हरि की भगति करहु मनु लाइ ॥
मन लगाकर केवल भगवान की भक्ति ही करो।
मनि बंछत नानक फल पाइ ॥४॥
हे नानक ! (जो भक्ति करता है) उसे मनोवांछित फल मिलता है॥४॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19
संगि न चालसि तेरै धना ॥
धन-दौलत तेरे साथ नहीं जाने वाला,
तूं किआ लपटावहि मूरख मना ॥
फिर हे मूर्ख मन ! तू क्यों इससे लिपटा हुआ है।
सुत मीत कुट्मब अरु बनिता ॥
पुत्र, मित्र, परिवार एवं पत्नी –
इन ते कहहु तुम कवन सनाथा ॥
इन में से तू बता कौन तेरा सहायक है ?
राज रंग माइआ बिसथार ॥
राज्य, रंगरलियां एवं धन-दौलत का विस्तार
इन ते कहहु कवन छुटकार ॥
इनमें से बता कौन कब बचा है ?
असु हसती रथ असवारी ॥
अश्व, हाथी एवं रथों की सवारी करनी –
झूठा ड्मफु झूठु पासारी ॥
यह सब झूठा आडम्बर है।
जिनि दीए तिसु बुझै न बिगाना ॥
मूर्ख पुरुष उस परमात्मा को नहीं जानता, जिसने ये तमाम पदार्थ दिए हैं।
नामु बिसारि नानक पछुताना ॥५॥
हे नानक ! नाम को भुला कर प्राणी अन्त में पश्चाताप करता है॥ ५ ॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19
गुर की मति तूं लेहि इआने ॥
हे मूर्ख मनुष्य ! तू गुरु की शिक्षा ले।
भगति बिना बहु डूबे सिआने ॥
प्रभु की भक्ति के बिना बड़े बुद्धिमान लोग भी डूब गए हैं।
हरि की भगति करहु मन मीत ॥
हे मेरे मित्र ! अपने मन में भगवान की भक्ति कर,
निरमल होइ तुम्हारो चीत ॥
उससे तेरा मन निर्मल हो जाएगा।
चरन कमल राखहु मन माहि ॥
प्रभु के चरण कमल अपने हृदय में बसा,
जनम जनम के किलबिख जाहि ॥
तेरे जन्म-जन्मांतर के पाप दूर हो जाएँगे।
आपि जपहु अवरा नामु जपावहु ॥
स्वयं ईश्वर के नाम का जाप कर और दूसरों से भी नाम का जाप करवा।
सुनत कहत रहत गति पावहु ॥
सुनने, कहने एवं इस आचरण में रहने से मुक्ति मिल जाएगी।
सार भूत सति हरि को नाउ ॥
सारभूत हरि का सत्य नाम है।
सहजि सुभाइ नानक गुन गाउ ॥६॥
नानक ! सहज स्वभाव से प्रभु की गुणस्तुति कर ॥ ६॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 19
गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥
(हे जीव !) ईश्वर के गुण गाते हुए तेरी पापों की मैल उतर जाएगी
बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥
एवं अहंकार-रूपी विष का विस्तार भी मिट जाएगा।
होहि अचिंतु बसै सुख नालि ॥
वह बेफिक्र हो जाएगा और सुखपूर्वक बसेगा
सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥
जो अपने प्रत्येक श्वास एवं ग्रास से हरि के नाम की आराधना करेगा ।
छाडि सिआनप सगली मना ॥
हे मन ! अपनी तमाम चतुरता त्याग दे।
साधसंगि पावहि सचु धना ॥
साध संगत करने से सच्चा धन मिल जाएगा।
हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ॥
ईश्वर के नाम की पूँजी संचित कर और उसका ही व्यापार कर।
ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥
इस तरह इस जीवन में सुख मिलेगा और प्रभु के दरबार में सत्कार होगा।
सरब निरंतरि एको देखु ॥
वह एक ईश्वर को सर्वत्र देखता है,”
कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥
हे नानक ! जिसके माथे पर भाग्य विद्यमान है ॥ ७ ॥
एको जपि एको सालाहि ॥
एक ईश्वर के नाम का जाप कर और केवल उसकी ही सराहना कर।
एकु सिमरि एको मन आहि ॥
एक ईश्वर का चिन्तन कर और केवल उसे ही अपने हृदय में बसा।
एकस के गुन गाउ अनंत ॥
उस अनन्त एक ईश्वर के गुण गायन कर।
मनि तनि जापि एक भगवंत ॥
मन एवं तन से एक भगवान का जाप कर।
एको एकु एकु हरि आपि ॥
वह परमात्मा आप ही आप है।
पूरन पूरि रहिओ प्रभु बिआपि ॥
जीवों में व्यापक होकर प्रभु सब ओर बस रहा है।
अनिक बिसथार एक ते भए ॥
एक ईश्वर से अनेक प्रसार हुए हैं।
एकु अराधि पराछत गए ॥
भगवान की आराधना करने से पाप मिट जाते हैं।
मन तन अंतरि एकु प्रभु राता ॥
मेरा मन एवं शरीर एक प्रभु में मग्न हुए हैं।
गुर प्रसादि नानक इकु जाता ॥८॥१९॥
हे नानक ! गुरु की कृपा से उसने एक ईश्वर को ही जाना है ॥८॥१९॥