Sukhmani Sahib Ashtpadi 17 Hindi Lyrics & Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17 Hindi Lyrics, and Meaning
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
सुखमनी साहिब असटपदी 17
सलोकु ॥
आदि सचु जुगादि सचु ॥
भगवान सृष्टि-रचना से पहले सत्य था, युगों के प्रारम्भ में भी सत्य था,
है भि सचु नानक होसी भि सचु ॥१॥
अब वर्तमान में उसी का अस्तित्व है।
हे नानक ! भविष्य में भी उस सत्यस्वरूप भगवान का अस्तित्व होगा ॥१॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
असटपदी ॥
अष्टपदी॥
चरन सति सति परसनहार ॥
प्रभु के चरण सत्य हैं और सत्य है वह जो उसके चरण-स्पर्श करता है।
पूजा सति सति सेवदार ॥
उसकी पूजा सत्य है एवं उसकी पूजा करने वाला भी सत्य है।
दरसनु सति सति पेखनहार ॥
उसके दर्शन सत्य हैं और दर्शन करने वाला भी सत्य है।
नामु सति सति धिआवनहार ॥
उसका नाम सत्य है और वह भी सत्य है जो इसका ध्यान करता है।
आपि सति सति सभ धारी ॥
वह स्वयं सत्यस्वरूप है, सत्य है वह प्रत्येक वस्तु जिसे उसने सहारा दिया हुआ है।
आपे गुण आपे गुणकारी ॥
वह स्वयं ही गुण है और स्वयं ही गुणकारी है।
सबदु सति सति प्रभु बकता ॥
प्रभु की वाणी सत्य है और वह सत्य वक्ता है।
सुरति सति सति जसु सुनता ॥
वह कान सत्य हैं जो सद्पुरुष का यशोगान सुनते हैं।
बुझनहार कउ सति सभ होइ ॥
जो प्रभु को समझता है, उसके लिए सब सत्य ही है।
नानक सति सति प्रभु सोइ ॥१॥
हे नानक ! वह प्रभु सदा सर्वदा सत्य है ॥१॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
सति सरूपु रिदै जिनि मानिआ ॥
जो मनुष्य अपने हृदय में सत्यस्वरूप परमात्मा पर आस्था धारण करता है,
करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥
वह सब कुछ करने वाले एवं कराने वाले (सृष्टि के) मूल को समझ लेता है।
जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ॥
जिसके हृदय में प्रभु का विश्वास प्रवेश कर गया है,
ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥
उसके मन में तत्व ज्ञान प्रत्यक्ष होता है।
भै ते निरभउ होइ बसाना ॥
डर को त्याग कर वह निडर होकर बसता है
जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ॥
और जिससे वह उत्पन्न हुआ था, उस में ही समा जाता है।
बसतु माहि ले बसतु गडाई ॥
जब एक वस्तु अपनी प्रकार की दूसरी वस्तु से मिल जाती है
ता कउ भिंन न कहना जाई ॥
तो वह इससे भिन्न नहीं कही जा सकती।
बूझै बूझनहारु बिबेक ॥
इस विचार को कोई सूझवान ही समझता है।
नाराइन मिले नानक एक ॥२॥
हे नानक ! जो प्राणी नारायण से मिल चुके हैं,
वे उसके साथ एक हो चुके हैं।॥२॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥
भगवान का सेवक उसका आज्ञाकारी होता है।
ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥
भगवान का सेवक सदा उसकी ही पूजा करता रहता है।
ठाकुर के सेवक कै मनि परतीति ॥
ईश्वर के सेवक के मन में आस्था होती है।
ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥
प्रभु के सेवक का जीवन-आचरण पवित्र होता है।
ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ॥
प्रभु का सेवक जानता है कि उसका स्वामी सदैव उसके साथ है।
प्रभ का सेवकु नाम कै रंगि ॥
परमेश्वर का सेवक उसके नाम की प्रीति में बसता है।
सेवक कउ प्रभ पालनहारा ॥
अपने सेवक का प्रभु पालन-पोषणहार है।
सेवक की राखै निरंकारा ॥
निरंकार प्रभु अपने सेवक की प्रतिष्ठा रखता है।
सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ॥
वही सेवक है, जिस पर प्रभु दया करता है।
नानक सो सेवकु सासि सासि समारै ॥३॥
हे नानक ! वह सेवक प्रत्येक श्वास से ईश्वर को स्मरण करता रहता है ॥३॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
अपुने जन का परदा ढाकै ॥
परमात्मा अपने सेवक का पद रखता है।
अपने सेवक की सरपर राखै ॥
वह अपने सेवक की निश्चित ही प्रतिष्ठा रखता है।
अपने दास कउ देइ वडाई ॥
प्रभु अपने सेवक को मान-सम्मान प्रदान करता है।
अपने सेवक कउ नामु जपाई ॥
अपने सेवक से वह अपने नाम का जाप करवाता है।
अपने सेवक की आपि पति राखै ॥
अपने सेवक की वह स्वयं ही लाज रखता है।
ता की गति मिति कोइ न लाखै ॥
उसकी गति एवं अनुमान को कोई नहीं जानता।
प्रभ के सेवक कउ को न पहूचै ॥
कोई भी व्यक्ति प्रभु के सेवक की बराबरी नहीं कर सकता।
प्रभ के सेवक ऊच ते ऊचे ॥
ईश्वर के सेवक सर्वोच्च हैं।
जो प्रभि अपनी सेवा लाइआ ॥
प्रभु जिसको अपनी सेवा में लगाता है,
नानक सो सेवकु दह दिसि प्रगटाइआ ॥४॥
हे नानक ! वह सेवक दसों दिशाओं में लोकप्रिय हो जाता है ॥४॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
नीकी कीरी महि कल राखै ॥
यदि प्रभु छोटी-सी चींटी में शक्ति भर दे तो
भसम करै लसकर कोटि लाखै ॥
वह लाखों, करोड़ों लश्करों को भस्म बना सकती है।
जिस का सासु न काढत आपि ॥
जिस प्राणी का श्वास परमेश्वर स्वयं नहीं निकालता,
ता कउ राखत दे करि हाथ ॥
उसको वह अपना हाथ देकर बचा लेता है।
मानस जतन करत बहु भाति ॥
मनुष्य अनेक विधियों से यत्न करता है,
तिस के करतब बिरथे जाति ॥
परन्तु उसके काम असफल हो जाते हैं।
मारै न राखै अवरु न कोइ ॥
ईश्वर के अलावा दूसरा कोई मार अथवा बचा नहीं सकता।
सरब जीआ का राखा सोइ ॥
समस्त जीव-जन्तुओं का परमात्मा ही रखवाला है।
काहे सोच करहि रे प्राणी ॥
हे नश्वर प्राणी ! तुम क्यों चिन्ता करते हो ?
जपि नानक प्रभ अलख विडाणी ॥५॥
हे नानक ! अलक्ष्य एवं आश्चर्यजनक परमात्मा को स्मरण कर ॥५॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
बारं बार बार प्रभु जपीऐ ॥
बार-बार ईश्वर के नाम का जाप करना चाहिए।
पी अम्रितु इहु मनु तनु ध्रपीऐ ॥
नाम-अमृत पीकर यह मन एवं शरीर तृप्त हो जाते हैं।
नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ॥
जिस गुरमुख को नाम-रत्न प्राप्त हुआ है,
तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ ॥
वह ईश्वर के अलावा किसी दूसरे को नहीं देखता।
नामु धनु नामो रूपु रंगु ॥
नाम उसका धन है और नाम ही उसका रूप, रंग है।
नामो सुखु हरि नाम का संगु ॥
नाम उसका सुख है और हरि का नाम ही उसका साथी होता है।
नाम रसि जो जन त्रिपताने ॥
जो मनुष्य नाम-अमृत से तृप्त हो जाते हैं,
मन तन नामहि नामि समाने ॥
उनकी आत्मा एवं शरीर केवल नाम में ही लीन हो जाते हैं।
ऊठत बैठत सोवत नाम ॥
हे नानक ! उठते-बैठते,सोते हुए,
कहु नानक जन कै सद काम ॥६॥
सदैव ईश्वर का नाम-स्मरण ही सेवकों का काम होता हैI ॥६॥
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
बोलहु जसु जिहबा दिनु राति ॥
अपनी जिव्हा से दिन-रात परमेश्वर की गुणस्तुति करो।
प्रभि अपनै जन कीनी दाति ॥
यह देन परमेश्वर ने अपने सेवक को प्रदान की है।
करहि भगति आतम कै चाइ ॥
वह मन के उत्साह से भक्ति करता है
प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ ॥
और अपने प्रभु में ही लीन रहता है।
जो होआ होवत सो जानै ॥
वह जो कुछ हो रहा है,भगवान की इच्छा से सहर्ष जानता है।
प्रभ अपने का हुकमु पछानै ॥
और अपने प्रभु के हुक्म को पहचानता है।
तिस की महिमा कउन बखानउ ॥
उसकी महिमा कौन वर्णन कर सकता है ?
तिस का गुनु कहि एक न जानउ ॥
उसकी एक प्रशंसा को भी मैं वर्णन करना नहीं जानता।
आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे ॥
जो सारा दिन प्रभु की उपस्थिति में बसते हैं,
कहु नानक सेई जन पूरे ॥७॥
हे नानक ! वह पूर्ण पुरुष हैं।॥७॥।
Sukhmani Sahib Ashtpadi 17
मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥
हे मेरे मन ! तू उनकी शरण ले।
मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥
अपना मन एवं तन उन पुरुषों को समर्पित कर दे।
जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ॥
जिस पुरुष ने अपने प्रभु को पहचान लिया है
सो जनु सरब थोक का दाता ॥
वह मनुष्य समस्त वस्तुएँ देने वाला है।
तिस की सरनि सरब सुख पावहि ॥
उसकी शरण में तुम्हें सर्व सुख मिल जाएँगे।
तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥
उसके दर्शन द्वारा समस्त पाप नाश हो जाएँगे।
अवर सिआनप सगली छाडु ॥
दूसरी चतुराई त्याग कर
तिसु जन की तू सेवा लागु ॥
प्रभु के उस सेवक की सेवा में स्वयं को लगा ले।
आवनु जानु न होवी तेरा ॥
तेरा आवागमन मिट जाएगा।
नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥१७॥
हे नानक ! सदैव ही उस सेवक के चरणों की पूजा करो ॥८॥१७॥