Sukhmani Sahib Ashtpadi 18 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18 Hindi Lyrics, and Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

सुखमनी साहिब असटपदी 18

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

सलोकु ॥

सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ ॥
जिसने सत्य स्वरूप परमात्मा को जान लिया है,
उसका नाम सतिगुरु है।

तिस कै संगि सिखु उधरै नानक हरि गुन गाउ ॥१॥
हे नानक ! उसकी संगति में ईश्वर की गुणस्तुति करने से
उसका शिष्य भी पार हो जाता है॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

असटपदी ॥
अष्टपदी।

सतिगुरु सिख की करै प्रतिपाल ॥
सतिगुरु अपने शिष्य का पालन-पोषण करता है।

सेवक कउ गुरु सदा दइआल ॥
अपने सेवक पर गुरु जी हमेशा दयालु रहते हैं।

सिख की गुरु दुरमति मलु हिरै ॥
गुरु अपने शिष्य की मंदबुद्धि रूपी मैल को साफ कर देते हैं।

गुर बचनी हरि नामु उचरै ॥
गुरु के उपदेश द्वारा वह हरि के नाम का जाप करता है।

सतिगुरु सिख के बंधन काटै ॥
सतिगुरु अपने शिष्य के बन्धन काट देते हैं।

गुर का सिखु बिकार ते हाटै ॥
गुरु का शिष्य विकारों से हट जाता है।

सतिगुरु सिख कउ नाम धनु देइ ॥
सतिगुरु अपने शिष्य को ईश्वर-नाम रूपी धन प्रदान करते हैं।

गुर का सिखु वडभागी हे ॥
गुरु का शिष्य बड़ा भाग्यशाली है।

सतिगुरु सिख का हलतु पलतु सवारै ॥
सतिगुरु अपने शिष्य का इहलोक एवं परलोक संवार देते हैं।

नानक सतिगुरु सिख कउ जीअ नालि समारै ॥१॥
हे नानक ! सतिगुरु अपने शिष्य को अपने हृदय से लगाकर रखता है ॥१॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
जो सेवक गुरु के घर में रहता है,

गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
वह गुरु की आज्ञा सहर्ष मन में स्वीकार करता है।

आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
वह अपने आपको बड़ा नहीं जतलाता।

हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
वह अपने हृदय में हमेशा ही हरि-परमेश्वर के नाम का ध्यान करता रहता है।

मनु बेचै सतिगुर कै पासि ॥
जो अपना मन सतिगुरु के समक्ष बेच देता है,

तिसु सेवक के कारज रासि ॥
उस सेवक के तमाम कार्य संवर जाते हैं।

सेवा करत होइ निहकामी ॥
जो सेवक निष्काम भावना से गुरु की सेवा करता है,

तिस कउ होत परापति सुआमी ॥
वह प्रभु को पा लेता है।

अपनी क्रिपा जिसु आपि करेइ ॥
हे नानक ! जिस पर गुरु जी स्वयं कृपा करते हैं,

नानक सो सेवकु गुर की मति लेइ ॥२॥
वह सेवक गुरु की शिक्षा प्राप्त करता है ॥२॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

बीस बिसवे गुर का मनु मानै ॥
सेवक अपने गुरु का मन पूर्णतया जीत लेता है,

सो सेवकु परमेसुर की गति जानै ॥
वह परमेश्वर की गति को जान लेता है।

सो सतिगुरु जिसु रिदै हरि नाउ ॥
सतिगुरु वही है, जिसके हृदय में हरि का नाम है।

अनिक बार गुर कउ बलि जाउ ॥
मैं अनेक बार अपने गुरु पर बलिहारी जाता हूँ।

सरब निधान जीअ का दाता ॥
गुरु जी प्रत्येक पदार्थ के खजाने एवं जीवन प्रदान करने वाले हैं।

आठ पहर पारब्रहम रंगि राता ॥
वह आठ प्रहर ही पारब्रह्म के रंग में मग्न रहते हैं।

ब्रहम महि जनु जन महि पारब्रहमु ॥
भक्त ब्रह्म में बसता है और पारब्रह्म भक्त में बसता है।

एकहि आपि नही कछु भरमु ॥
प्रभु केवल एक ही है इसमें कोई सन्देह नहीं।

सहस सिआनप लइआ न जाईऐ ॥
हे नानक ! हजारों ही चतुराइयों द्वारा गुरु प्राप्त नहीं होता,

नानक ऐसा गुरु बडभागी पाईऐ ॥३॥
ऐसा गुरु बड़े भाग्य से ही मिलता है ॥३॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥
गुरु का दर्शन फल प्रदान करने वाला है तथा दर्शन-मात्र से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है।

परसत चरन गति निरमल रीति ॥
उनके चरण स्पर्श करने से मनुष्य की अवस्था एवं जीवन-आचरण निर्मल हो जाते हैं।

भेटत संगि राम गुन रवे ॥
गुरु की संगति करने से प्राणी राम की गुणस्तुति करता है

पारब्रहम की दरगह गवे ॥
और परब्रह्म के दरबार में पहुँच जाता है।

सुनि करि बचन करन आघाने ॥
गुरु के वचन सुनने से कान तृप्त हो जाते हैं तथा

मनि संतोखु आतम पतीआने ॥
मन में संतोष आ जाता है और आत्मा तृप्त हो जाती है।

रा गुरु अख्यओ जा का मंत्र ॥
गुरु पूर्ण पुरुष हैं और उनका मंत्र सदैव अटल है।

अम्रित द्रिसटि पेखै होइ संत ॥
जिसे वह अपनी अमृत दृष्टि से देखते हैं, वह संत बन जाता है।

गुण बिअंत कीमति नही पाइ ॥
गुरु के गुण अनन्त हैं, जिसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

नानक जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥४॥
हे नानक ! ईश्वर को जो प्राणी अच्छा लगता है,
उसे वह गुरु से मिला देता है। ४॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

जिहबा एक उसतति अनेक ॥
जिव्हा एक है परन्तु ईश्वर के गुण अनन्त हैं।

सति पुरख पूरन बिबेक ॥
वह सद्पुरुष पूर्ण विवेक वाला है।

काहू बोल न पहुचत प्रानी ॥
किसी भी वचन द्वारा प्राणी ईश्वर के गुणों तक पहुँच नहीं सकता।

अगम अगोचर प्रभ निरबानी ॥
प्रभु अगम्य, अगोचर एवं पवित्र पावन है।

निराहार निरवैर सुखदाई ॥
प्रभु को भोजन की आवश्यकता नहीं,
वह वैर-रहित एवं सुख प्रदान करने वाला है।

ता की कीमति किनै न पाई ॥
कोई भी प्राणी उसका मूल्यांकन नहीं कर पाया।

अनिक भगत बंदन नित करहि ॥
अनेकों भक्त नित्य उसकी वन्दना करते रहते हैं।

चरन कमल हिरदै सिमरहि ॥
उसके चरण कमलों को वह अपने हृदय में स्मरण करते हैं।

सद बलिहारी सतिगुर अपने ॥
हे नानक ! अपने सतिगुरु पर हमेशा बलिहारी जाता हूँ,

नानक जिसु प्रसादि ऐसा प्रभु जपने ॥५॥
जिनकी कृपा से वह ऐसे प्रभु का नाम-स्मरण करता है ॥५॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

इहु हरि रसु पावै जनु कोइ ॥
यह हरि रस किसी विरले पुरुष को ही प्राप्त होता है।

अम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥
जो इस अमृत का पान करता है, वह अमर हो जाता है।

उसु पुरख का नाही कदे बिनास ॥
उस पुरुष का कभी नाश नहीं होता,

जा कै मनि प्रगटे गुनतास ॥
जिसके हृदय में गुणों का भण्डार प्रकट हो जाता है।

आठ पहर हरि का नामु लेइ ॥
आठ पहर ही वह हरि का नाम लेता है और

सचु उपदेसु सेवक कउ देइ ॥
अपने सेवक को सच्चा उपदेश प्रदान करता है।

मोह माइआ कै संगि न लेपु ॥
मोह-माया के साथ उसका कभी मेल नहीं होता।

मन महि राखै हरि हरि एकु ॥
वह अपने हृदय में एक हरि-परमेश्वर को ही बसाता है।

अंधकार दीपक परगासे ॥
अज्ञानता रूपी अन्धेरे में उसके लिए नाम रूपी दीपक रौशन हो जाता है।

नानक भरम मोह दुख तह ते नासे ॥६॥
हे नानक ! दुविधा, मोह एवं दुःख उससे दूर भाग जाते हैं। ॥६॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

तपति माहि ठाढि वरताई ॥
गुरु के पूर्ण उपदेश ने मोह-माया की अग्नि में शीतलता प्रविष्ट करा दी है,

अनदु भइआ दुख नाठे भाई ॥
प्रसन्नता उत्पन्न हो गई है व दुःख दूर हो गया है

जनम मरन के मिटे अंदेसे ॥
जन्म-मरण का भय मिट गया है।

साधू के पूरन उपदेसे ॥
गुरु के पूर्ण उपदेश से

भउ चूका निरभउ होइ बसे ॥
भय नाश हो गया है और निडर रहते हैं।

सगल बिआधि मन ते खै नसे ॥
तमाम रोग नष्ट होकर मन से लुप्त हो गए हैं।

जिस का सा तिनि किरपा धारी ॥
जिस गुरु के थे, उसने कृपा की है,

साधसंगि जपि नामु मुरारी ॥
सत्संगति में यह मुरारी के नाम का जाप करता है।

थिति पाई चूके भ्रम गवन ॥
भय एवं दुविधा मिट गए हैं।

सुनि नानक हरि हरि जसु स्रवन ॥७॥
हे नानक ! हरि-परमेश्वर की महिमा कानों से सुनकर शांति मिल गई है ॥७॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18

निरगुनु आपि सरगुनु भी ओही ॥
वह स्वयं निर्गुण स्वामी है और वह ही सर्गुण है,

कला धारि जिनि सगली मोही ॥
जिसने अपनी कला (शक्ति) प्रकट करके
समूचे विश्व को मुग्ध किया हुआ है।

अपने चरित प्रभि आपि बनाए ॥
अपने कौतुक प्रभु ने स्वयं ही रचे हैं।

अपुनी कीमति आपे पाए ॥
अपना मूल्यांकन वह स्वयं ही जानता है।

हरि बिनु दूजा नाही कोइ ॥
ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं।

सरब निरंतरि एको सोइ ॥
सबके भीतर वह अकाल पुरुष स्वयं ही मौजूद है।

ओति पोति रविआ रूप रंग ॥
ताने-बाने की तरह वह तमाम रूप-रंगों में समा रहा है।

भए प्रगास साध कै संग ॥
संतों की संगति करने से वह प्रगट हो जाता है।

रचि रचना अपनी कल धारी ॥
सृष्टि की रचना करके प्रभु ने अपनी सत्ता टिकाई है।

अनिक बार नानक बलिहारी ॥८॥१८॥
हे नानक ! मैं अनेक बार उस (प्रभु) पर कुर्बान जाता हूँ ॥८॥१८॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 18