Sukhmani Sahib Ashtpadi 9 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9 Hindi Lyrics, and Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9 Hindi Lyrics & Meaning

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

सुखमनी साहिब असटपदी 9

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

सलोकु ॥

उरि धारै जो अंतरि नामु ॥
जो व्यक्ति अपने हृदय में भगवान के नाम को बसाता है,

सरब मै पेखै भगवानु ॥
जो सब में भगवान के दर्शन करता है और

निमख निमख ठाकुर नमसकारै ॥
क्षण-क्षण प्रभु को प्रणाम करता है,

नानक ओहु अपरसु सगल निसतारै ॥१॥
हे नानक ! ऐसा सत्यवादी निर्लिप्त महापुरुष
समस्त प्राणियों का भवसागर से उद्धार कर देता है। १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

असटपदी ॥
अष्टपदी।

मिथिआ नाही रसना परस ॥
जो व्यक्ति जिव्हा से झूठ नहीं बोलता,

मन महि प्रीति निरंजन दरस ॥
जिसके हृदय में पवित्र प्रभु के दर्शनों की अभिलाषा बनी रहती है,

पर त्रिअ रूपु न पेखै नेत्र ॥
जिसके नेत्र पराई नारी के सौन्दर्य को नहीं देखते,

साध की टहल संतसंगि हेत ॥
जो साधुओं की श्रद्धापूर्वक सेवा करता है
और संतों की संगति से प्रेम करता है,

करन न सुनै काहू की निंदा ॥
जो अपने कानों से किसी की निन्दा नहीं सुनता,

सभ ते जानै आपस कउ मंदा ॥
जो अपने आपको बुरा (निम्न) समझता है,

गुर प्रसादि बिखिआ परहरै ॥
जो गुरु की कृपा से बुराई को त्याग देता है,

मन की बासना मन ते टरै ॥
जो अपने मन की वासना अपने मन से दूर कर देता है

इंद्री जित पंच दोख ते रहत ॥
और जो अपनी ज्ञान-इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है
और पाँचों ही विकारों से बचा रहता है,

नानक कोटि मधे को ऐसा अपरस ॥१॥
हे नानक ! करोड़ों में से कोई ऐसा विरला पुरुष ‘अपरस’
(पवित्र-पावन) होता है।॥ १॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

बैसनो सो जिसु ऊपरि सुप्रसंन ॥
जिस व्यक्ति पर परमात्मा प्रसन्न है, वही वैष्णय है।

बिसन की माइआ ते होइ भिंन ॥
वह विष्णु की माया से अलग रहता है

करम करत होवै निहकरम ॥
और शुभकर्म करता हुआ निष्कर्मी ही रहता है।

तिसु बैसनो का निरमल धरम ॥
उस वैष्णव का धर्म भी पवित्र है।

काहू फल की इछा नही बाछै ॥
वह किसी फल की इच्छा नहीं करता।

केवल भगति कीरतन संगि राचै ॥
वह केवल प्रभु-भक्ति एवं उसके कीर्तन में ही समाया रहता है।

मन तन अंतरि सिमरन गोपाल ॥
उसकी आत्मा एवं शरीर में सृष्टि के
पालनहार गोपाल का सिमरन ही होता है।

सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥
वह समस्त जीवों पर कृपालु होता है।

आपि द्रिड़ै अवरह नामु जपावै ॥
वह स्वयं ईश्वर का नाम अपने मन में बसाता है
और दूसरों से नाम का जाप करवाता है।

नानक ओहु बैसनो परम गति पावै ॥२॥
हे नानक ! ऐसा वैष्णव परमगति प्राप्त कर लेता है ॥२॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

भगउती भगवंत भगति का रंगु ॥
जिसके चित्त में भगवान की भक्ति का प्रेम होता है,
वही भगवान का वास्तविक भक्त है।

सगल तिआगै दुसट का संगु ॥
वह समस्त दुष्टों की संगति त्याग देता है

मन ते बिनसै सगला भरमु ॥
और उसके मन से हर प्रकार की दुविधा मिट जाती है।

करि पूजै सगल पारब्रहमु ॥
वह पारब्रह्म को हर जगह मौजूद समझता है
और केवल उसकी ही पूजा करता है।

साधसंगि पापा मलु खोवै ॥
जो साधुओं-संतों की संगति में रहकर
पापों की मैल मन से निवृत कर देता है,

तिसु भगउती की मति ऊतम होवै ॥
ऐसे भक्त की बुद्धि उत्तम हो जाती है।

भगवंत की टहल करै नित नीति ॥
वह अपने भगवान की नित्य सेवा करता रहता है।

मनु तनु अरपै बिसन परीति ॥
वह अपना मन एवं तन अपने प्रभु के प्रेम में समर्पित कर देता है।

हरि के चरन हिरदै बसावै ॥
वह भगवान के चरण अपने हृदय में बसाता है।

नानक ऐसा भगउती भगवंत कउ पावै ॥३॥
हे नानक ! ऐसा भक्त ही भगवान को प्राप्त करता है ॥३॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

सो पंडितु जो मनु परबोधै ॥
पण्डित वही है, जो अपने मन को उपदेश प्रदान करता है।

राम नामु आतम महि सोधै ॥
वह राम के नाम को अपने हृदय में खोजता है।

राम नाम सारु रसु पीवै ॥
जो राम-नाम का मीठा रस सेवन करता है।

उसु पंडित कै उपदेसि जगु जीवै ॥
उस पण्डित के उपदेश द्वारा सारा जगत् जीता है,

हरि की कथा हिरदै बसावै ॥
जो पण्डित हरि की कथा को अपने हृदय में बसाता है,

सो पंडितु फिरि जोनि न आवै ॥
ऐसा पण्डित दोबारा योनियों में प्रवेश नहीं करता।

बेद पुरान सिम्रिति बूझै मूल ॥
वह वेद, पुराणों एवं स्मृतियों के मूल तत्व का विचार करता है,

सूखम महि जानै असथूलु ॥
वह दृष्टिगोचर संसार को अदृश्य प्रभु में अनुभव करता है

चहु वरना कउ दे उपदेसु ॥
और चारों ही वर्णो (जातियों) को उपदेश देता है।

नानक उसु पंडित कउ सदा अदेसु ॥४॥
हे नानक ! उस पण्डित को सदैव ही प्रणाम है॥४॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

बीज मंत्रु सरब को गिआनु ॥
समस्त मंत्रों का बीज मंत्र ज्ञान है।

चहु वरना महि जपै कोऊ नामु ॥
चारों ही वर्णो में कोई भी पुरुष नाम का जाप करे।

जो जो जपै तिस की गति होइ ॥
जो जो नाम जपता है, उसकी गति हो जाती है।

साधसंगि पावै जनु कोइ ॥
कोई पुरुष ही इसे सत्संगति में रहकर प्राप्त करता है।

करि किरपा अंतरि उर धारै ॥
यदि प्रभु अपनी कृपा से हृदय में नाम बसा दे

पसु प्रेत मुघद पाथर कउ तारै ॥
तो पशु, प्रेत, मूर्ख, पत्थर दिल भी पार हो जाते हैं।

सरब रोग का अउखदु नामु ॥
ईश्वर का नाम समस्त रोगों की औषधि है।

कलिआण रूप मंगल गुण गाम ॥
भगवान की गुणस्तुति करना कल्याण एवं मुक्ति का रूप है।

काहू जुगति कितै न पाईऐ धरमि ॥
किसी युक्ति अथवा किसी धर्म-कर्म द्वारा ईश्वर का नाम प्राप्त नहीं किया जा सकता।

नानक तिसु मिलै जिसु लिखिआ धुरि करमि ॥५॥
हे नानक ! भगवान का नाम उस इन्सान को ही मिलता हैं,
जिसकी किस्मत में आदि से ही लिखा होता है॥ ५॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

जिस कै मनि पारब्रहम का निवासु ॥
जिसके मन में भगवान का निवास है,”

तिस का नामु सति रामदासु ॥
उसका नाम सत्य ही रामदास है।

आतम रामु तिसु नदरी आइआ ॥
उसे अपने अन्तर में ही राम दिखाई दे गया है।

दास दसंतण भाइ तिनि पाइआ ॥
सेवकों का सेवक होने के स्वभाव से उसने ईश्वर को पाया है।

सदा निकटि निकटि हरि जानु ॥
जो हमेशा ही भगवान को अपने निकट समझता है,

सो दासु दरगह परवानु ॥
वह सेवक प्रभु के दरबार में स्वीकार होता है।

अपुने दास कउ आपि किरपा करै ॥
ईश्वर अपने सेवक पर स्वयं कृपा-दृष्टि करता है

तिसु दास कउ सभ सोझी परै ॥
और उस सेवक को समूचा ज्ञान हो जाता है।

सगल संगि आतम उदासु ॥
समूचे परिवार में (रहता हुआ भी) वह मन से निर्लिप्त रहता है,

ऐसी जुगति नानक रामदासु ॥६॥
हे नानक ! ऐसी जीवन-युक्ति वाला रामदास होता है ॥६॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

प्रभ की आगिआ आतम हितावै ॥
जो प्रभु की आज्ञा को सच्चे मन से मानता है,

जीवन मुकति सोऊ कहावै ॥
वही जीवन मुक्त कहलाता है।

तैसा हरखु तैसा उसु सोगु ॥
उसके लिए सुख एवं दुःख एक समान होते हैं।

सदा अनंदु तह नही बिओगु ॥
उसे हमेशा ही आनंद मिलता है और कोई वियोग नहीं होता।

तैसा सुवरनु तैसी उसु माटी ॥
सोना तथा मिट्टी भी उस पुरुष के लिए एक समान हैं,

तैसा अम्रितु तैसी बिखु खाटी ॥
उसके लिए अमृत एवं खट्टा विष भी एक समान है।

तैसा मानु तैसा अभिमानु ॥
उसके लिए मान एवं अभिमान भी एक समान है।

तैसा रंकु तैसा राजानु ॥
रंक तथा राजा भी उसकी नजर में बराबर हैं।

जो वरताए साई जुगति ॥
जो भगवान करता है, वही उसकी जीवन-युक्ति होती है।

नानक ओहु पुरखु कहीऐ जीवन मुकति ॥७॥
हे नानक ! वह पुरुष ही जीवन मुक्त कहा जाता है ॥७॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9

पारब्रहम के सगले ठाउ ॥
परमात्मा के ही समस्त स्थान हैं।

जितु जितु घरि राखै तैसा तिन नाउ ॥
जिस-जिस स्थान पर ईश्वर प्राणियों को रखता है,
वैसा ही वह नाम धारण कर लेते हैं।

आपे करन करावन जोगु ॥
भगवान स्वयं ही सब कुछ करने
और (प्राणियों से) करवाने में समर्थ है।

प्रभ भावै सोई फुनि होगु ॥
जो परमात्मा को भला लगता है, वही होता है

पसरिओ आपि होइ अनत तरंग ॥
परमात्मा ने अपने आपको अनन्त लहरों में मौजूद होकर फैलाया हुआ है।

लखे न जाहि पारब्रहम के रंग ॥
परमात्मा के कौतुक जाने नहीं जा सकते।

जैसी मति देइ तैसा परगास ॥
परमात्मा जैसी बुद्धि प्रदान करता है, वैसा ही प्रकाश होता है।

पारब्रहमु करता अबिनास ॥
सृष्टिकर्ता परमात्मा अनश्वर है।

सदा सदा सदा दइआल ॥
ईश्वर हमेशा ही दयालु है।

सिमरि सिमरि नानक भए निहाल ॥८॥९॥
हे नानक ! उस परमात्मा का सिमरन करके कितने ही जीव कृतार्थ हो गए हैं। ८॥ ६॥

Sukhmani Sahib Ashtpadi 9